कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत धारा जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि ने सुख विपाक सूत्र पर विवेचन करते हुवे कहा कि भगवान महावीर स्वामी सुबाहूकुमार को श्रावक के 12 व्रतों को सुना रहे थे जिसमें दसवें व्रत में कहा की छठे दिशि व्रत में जो दिशाओं की मर्यादा की है।
वही यहाँ पुनः दसवें व्रत में मर्यादा करने का कहा गया है। जितनी भूमिका की मर्यादा की है उसके आगे जाकर पांच आश्रव सेवन करने का त्याग कहा है। पूर्व पश्चिम उत्तर दक्षिण चारों दिशाओं की व विदिशा ऊपर-नीचे कुल मिलाकर 10 दिशा व विदिशा है। इनका विवेक रखना मर्यादित भूमि से बाहर की कोई वस्तु मंगाना नहीं नौकर-चाकर को भेजकर संदेश देकर मंगवाना या भिजवा ना।
शब्द करके दूसरों को आकर्षित करके बाहर की वस्तु मंगवाना साथ ही अपना रूप सौंदर्य दिखाकर के हाव भावों के द्वारा बाहर की चीज वस्तु आदि को मंगाना और जो अपनी सीमा रखी है। उसके बाहर जो व्यक्ति है उसे बुलाने के लिये कंकर पत्थर का उपयोग कर मनुष्य को बुलाना ये सब व्रत के अतिचार है।
आज हम अनादिकाल से ये सब करते आ रहे हैं जिसके कारण हमारा 84 लाख जीवा योनि का चक्कर खत्म नही हुआ पुराने कर्म खत्म होने वाला नहीं। व्यापार धंधे में परिवार में घड़बड़ होता है तो होने दो परंतु आत्मा में गड़बड़ नहीं होना चाहिये।
धन गया तो कोई बात नहीं पुनः मिल जाएगा परंतु आत्मा में घाटा नहीं होना चाहिये हमारी आत्मा को निर्मल और पवित्र बनाइये।