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ज्ञान वाणी

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता: वीरेन्द्र मुनि

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता: वीरेन्द्र मुनि

कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता बह रही है, जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें आज वीर स्तुति की तीसरी गाथा पर धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि आर्य सुधर्मा स्वामी के जंबू स्वामी के प्रश्न उत्तर फरमा रहे थे।

कल खेदज्ञ के विषय बताया था – अब आगे सुने क्षेत्रज्ञ क्षेत्र – आकाश इसके दो प्रकार है ( 1 ) लोकाकाश ( 2 ) आलोकाकाश है। आयुष्यमान जम्बू भगवान दोनों प्रकारके आकाश द्रव्य को जानते थे लोका काश में रहे हुवे धर्म , अधर्म जीव काल और पुदगल के अनंत समूह को भी जानते थे , और आत्म रूप स्वक्षेत्र को जानने वाले होने से क्षेत्रज्ञ कहलाये।

कुशल भगवान आठ प्रकार के कर्म रूपी तिरवे कुश को काटने में कुशल थे ,उसी तरह धर्मोपदेश देकर के कर्म निर्जरा के उपाय बता कर भव्य जीवो के कर्म को दूर करने में भी कुशल थे। महेशी – महर्षि अत्यंत उग्र तप रूपी अनुष्ठान करने से अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग परिषह को समभाव से सहन करने से, तत्व के वास्तविक रूप में प्रकाश करने से प्रभु को महर्षि अथवा महेशी के स्थान पर आसूपन्ने भी पाठ आता है।

आशु प्रज्ञ अनंत पदार्थों को एक समय में जान लेने वाले वे तीव्रप्रज्ञा वाले अर्थात केवल ज्ञानी थे। अतीत और अनागत वर्तमान के अनंत पदार्थों को जानने से और देखने से प्रभु अनंतज्ञानी वह अनंतदर्शी थे। जसंसिनो – प्रभु का अक्षय और अनुपम यश तीनो लोक में फैला हुआ था।

प्रभु के गुणों से प्रकट हुआ है , यश तीनो लोक में छाया हुआ है, दानव मानव और देवता गण भी गुण गाते हैं इसलिये वे महायशस्वी थे। चक्षु पथे स्थित – भगवान उस समय हष्टिगोचर अर्थात उपस्थित थे जनता में जिससे सभी दर्शन करते थे, अथवा संसार के सामने सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष अर्थ को बताने वाले होने से नेत्र समान थे।

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