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ज्ञान वाणी

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत धारा: वीरेन्द्र मुनि

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत धारा: वीरेन्द्र मुनि

कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत धारा बरस रही है, जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि सुबाहू कुमार की भावना के अनुसार प्रभु महावीर स्वामी पधार गये।

नगर की जनता के साथ राजा अदिनशत्रु राज परिवार युवराज आदि सभी लोग प्रभु की अमृत के समान वाणी का पान कर रहे थे। सुबाहू कुमार ने वाणी सुन करके प्रभु से हाथ जोड़कर वंदन करते हुए निवेदन करते हैं कि हे प्रभु मैंने आपकी वाणी सुनी अति आनंद आया और चिंतन किया कि यह संसार आसार है।

इस संसार में अनंत काल से हमारी आत्मा भटक रही है, सो कृपा करके अब तो तीरा दों में अपने माता पिता परिवार से आज्ञा प्राप्त करके आता हूँ। आपके पास दीक्षा लेना चाहता हूँ, भगवान ने कहा, अहा सुयं देवाणुपिया – जिसमें तुम्हें सुख प्राप्त हो वैसा करो।

परंतु शुभ काम में अर्थात धार्मिक कार्य देरी नहीं करनी चाहिये। पाप का कार्य हो तो उसमें ढील देनी चाहिये क्योंकि शुभ कार्य से पाप कर्म नष्ट होते हैं और अशुभकार्य से पाप कर्म का बंधन होता है। सुबाहूकुमार प्रभु को वंदन करके अपने धार्मिक रथ में सवार होकर राज महल में पहुंच कर तुरंत माता पिता के सामने उपस्थित होकर के नमस्कार करके पूछते हैं कि है माता-पिता में भगवान के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ।

अतः अनुमति दीजिये, माता पिता कहते हैं — हे पुत्र दीक्षा लेना सहज नहीं है। कितने परिषह व उपसर्ग आते हैं मोम के दांतो से लोहे के चने चबाने के बराबर है। साधु जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।

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