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ज्ञान वाणी

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस: वीरेन्द्र मुनि

चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस:  वीरेन्द्र मुनि

कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत रस की सरिता बह रही है, जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुए कहा कि आर्य सुधर्मा स्वामी ने आर्य जंबू स्वामी से कहा आयुष्मान भव प्रभु महावीर स्वामी की स्तुति में वीर स्तुति रचना की है।

सुधर्मा स्वामी ने जिसे पुच्छीसुणं कहते हैं – गाथा नः 14 में भगवान को सुमेरु की उपमा से उपमित करके उपसंहार करते हुए कहा कि जिस प्रकार मेरु पर्वत का यश चारों ओर गाया गया है कहा – सभी पर्वतों में मेरु पर्वत को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। उसी प्रकार भगवान महावीर स्वामी भी जातियों में सर्वश्रेष्ठ जातिवंत पुरुष थे। उनका दर्शन सर्वोत्तम है ज्ञान भी अनुपम है और शील – आचार भी सर्व शिरोमणि है।

आर्य सुधर्मा स्वामी 15 वीं गाथा में कहते हैं – हरिवर्ष क्षेत्र में निषध नाम का पर्वत कहा गया है। जिसकी लंबाई सभी पर्वतों से ज्यादा है – और रुचक पर्वत बलया कार यानी की चूड़ी के आकार वाला गोल – सभी में प्रमुख कहा गया है। वह पर्वत मानुषोत्तर पर्वत की तरह रूचक द्वीप में आया हुआ है। उसकी परिधि संख्याता योजन की है।

इन दोनों पर्वतों की तरह भगवान महावीर स्वामी भी संसार में भूतिप्रज्ञ अर्थात – संसार में आनंद प्रज्ञा संपन्न थे। अध्यात्मज्ञान में आदित्य थे उनके समान पूर्ण ज्ञानी दूसरा कोई भी दार्शनिक नहीं थे। उनके स्वरूप को जानने वालों ने उन्हें उत्कृष्ट ज्ञान वान यानी कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी कहा है।

16 गाथा में आर्य सुधर्मा स्वामी फरमाते हैं कि – भगवान महावीर स्वामी ने सर्वोत्तम धर्म को प्रकाशित करके शुक्ल ध्यान में प्रवेश किया था जो शुक्ल ध्यान उज्जवल से उज्जवल अर्जुन नामक स्वर्ण के समान शंख – चंद्रमा के समान एकांत शुभ यानी कि खेत ( सफेद ) था ऐसा 14 – 15 – 16 वीं गाथा का विवेचन किया।

पुनश्च शुक्ल ध्यान का प्रथम पाया तीन योग वाले को आठवें गुणस्थान से 12 वें गुणस्थान तक दूसरा पाया एक योग वाले को 12 वें गुणस्थान से 13 वें गुणस्थान तक जाते हुए साधक को तीसरा पाया सूक्ष्म काय योग वाला 13 वां गुणस्थान के अंत में चौथा पाया उपयोगी केवली 14 वें गुणस्थान में होता है। भगवान की लेश्या भी परम ၊शुक्ल लेश्या थी जिसमें आत्म द्रव्य निर्दोष अर्थात आत्म भाव निर्मल थे भगवान के आत्म भाव पवित्र उज्जवल पाक साफ थे हमारे आत्म भाव में राग द्वेष पाप स्थान भरे हुवे हैं परंतु भगवान के भाव निर्दोष थे।

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