कुम्बलगोडु, बेंगलुरु (कर्नाटक): जन-जन को उत्प्रेरित कर सत्पथ दिखाने वाले जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता शांतिदूत आचार्यश्री महाश्रमणजी ने बुधवार को चतुर्दशी के अवसर पर ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित चारित्रात्माओं को भी पावन प्रेरणा और मंगल संबोध प्रदान किया। अपने आराध्य, अनुशास्ता, गुरु, आचार्य से ऐसी प्रेरणा प्राप्त कर चारित्रात्माओं के मुखारविंद पर एक अलग की आंतरिक ऊर्जा की झलक दिखाई दे रही थी।
जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ की परंपरानुसार प्रत्येक चतुर्दशी को अपने आराध्य की मंगल सन्निधि में चारित्रात्माओं की उपस्थिति होती है। इस तिथि को आचार्य हाजरी का वाचन करते हैं तो चारित्रात्माएं अपने आराध्य के समक्ष अपने संकल्पों को निष्ठा की पुष्टि हेतु लेखपत्र का उच्चारण करते हैं। इस नियम को निभाने के लिए बुधवार को ‘महाश्रमण समवसरण’ में आचार्यश्री के साथ समस्त गुरुकुलवासी चारित्रात्माओं की भी उपस्थिति थी।
आचार्यश्री ‘सम्बोधि’ के माध्यम से श्रद्धालुओं सहित चारित्रात्माओं को विशेष पाथेय प्रदान करते हुए कहा कि आदमी के जीवन में कर्मों का प्रभाव होता है। किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व को परिभाषित करना हो तो उसके कर्मों के आधार पर किया जा सकता है। जैन दर्शन में आठ कर्म बताए गए हैं। इन्हीं कर्मों के आधार पर हम किसी के व्यक्तित्व और कर्तृत्व को परिभाषित कर सकते हैं।
मान लिया जाए कोई साधु है वह अच्छा सीखना करता है, एक दिन में कई श्लोकों को कंठस्थ कर लेता है, उसका अच्छा विवेचन कर सकता है, उसके तत्व को समझ लेता है तो मानना चाहिए के उसके ज्ञानावरणीय कर्म का अच्छा क्षयोपशम हुआ है। वहीं एक साधु को श्लोक याद नहीं होते, वह सीखना नहीं कर पाता, उसे तो विवेचन आदि तो बहुत दूर की बात हो जाती है तो मानना चाहिए कि उसके ज्ञानावरणीय कर्म का उदय है जो उसके ज्ञान प्राप्ति में बाधक बना हुआ है।
ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होता है तो ज्ञानार्जन में कमी की बात हो सकती है। एक साधु स्वस्थ है, शरीर अच्छा है तो मानना चाहिए कि उसके सातवेदनीय कर्म का उदय है और कोई साधु शरीर से रुग्ण हो जाए, बीमार रहता है, कभी कोई बीमारी तो कभी कोई बीमारी से ग्रसित होता है तो मानना चाहिए कि उसके असातवेदनीय कर्म का उदय है।
कोई साधु सरल, संतोषी, मृदुभाषी हो तो मानना चाहिए के उसके मोहनीय कर्म का अच्छा क्षयोपशम हुआ है। किसी में विनयशीलता की कमी, असंतोष का भाव हो और गुस्सा भी बार-बार आता हो तो मानना चाहिए के उसके मोहनीय कर्म का प्रभाव ज्यादा है। अविनय, व्यवहार में असंतोष, गुस्सा आदि मोहनीय कर्म के उदय के कारण होता है। आदमी के जीवन में प्रकृति बहुत महत्त्व होता है। साधु को अपनी प्रकृति को अच्छा बनाने का प्रयास करना चाहिए। प्रेम और सौहार्द, सहिष्णुता और मैत्री की भावना का विकास कर अपनी प्रकृति को अच्छा बनाया जा सकता है। प्रकृति को अच्छा बनाने के लिए साधु को अपने मोहनीय कर्म का क्षयोपशम और शांत बनाने का प्रयास करना चाहिए।
आचार्यश्री ने प्रवचन के संदर्भ में व्यवहार कुशलता की परीक्षा और प्रेरणा की दृष्टि से बालमुनि शुभमकुमारजी और ऋषिकुमारजी से कुछ प्रश्न किए और उनका उत्तर सुनने के उपरान्त उनसे व्यवहारिक रूप में अभिव्यक्त करने के लिए उत्प्रेरित किया तो बालमुनियों ने उसे किया तो मानों पूरा चतुर्विध धर्मसंघ आचार्यश्री की ऐसी प्रेरणा और वात्सल्य को देख अभिभूत नजर आ रहा था। आचार्यश्री ने हाजरी का वाचन किया। नवदीक्षित मुनि धीरजकुमारजी ने लेखपत्र का उच्चारण किया तत्पश्चात् उपस्थित चारित्रात्माओं ने अपने स्थान पर खड़े होकर लेखपत्र का उच्चारण किया।
महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी ने अपने उद्बोधन में आचार्यश्री से जिज्ञासा कि तो आचार्यश्री ने उन्हें प्रकृति के संदर्भ में की गई जिज्ञासा का समाधान प्रदान करते हुए चारित्रात्माओं को विशेष पाथेय प्रदान किया। कार्यक्रम के अंत में श्रीमती उर्मिला नरेश बरड़िया व श्रीमती सुमन प्रदीप धोका ने 31 दिन की तपस्या का प्रत्याख्यान किय तथा अनेकानेक तपस्वियों ने आचार्यश्री से अपनी-अपनी तपस्याओं का प्रत्याख्यान कर आचार्यश्री से पावन आशीर्वाद प्राप्त किया।
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जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा