अच्चरापाक्कम. मदुरान्तकम से विहार कर अच्चरापाक्कम पहुंचे उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने गुरुवार को कहा कि ईश्वर में अखंड आस्था रखने वाला परिग्रही नहीं हो सकता। ऐसी मान्यता है कि जिस ईश्वर ने जन्म दिया और जो आज हमारी रक्षा कर रहा है, भविष्य में भी वही हमारा संरक्षण करेगा। आसक्ति परिग्रह है। आसक्ति का अर्थ है किसी भी वस्तु में अपनत्व का अहसास करना। अपनत्व या ममता की भवना रागवश होती है जिससे उसके अर्जन, संजय एवं संग्रहण के लिए व्यक्ति निरंतर प्रयत्नशील रहता है।
उन्होंने कहा दार्शनिकों ने बड़ी ही सूक्ष्ममता से अपरिग्रह की विवेचना की है जिससे व्यक्ति को दिशा-निर्देश मिल सके। जर-जमीन, सोना-चांदी, धन-धान्य, दास-दासी एवं जरूरी साधनों का प्रमाणों का अतिक्रमण परिमाण व्रत के अतिचार हैं। अतिचार के साथ-साथ व्रत की भावनाओं की व्याख्या में भी हमारे चिंतकों ने स्पर्श, रस गंध, वर्ण एवं शब्द के प्रति राग-द्वेष वर्जन की बात कही है।
उपाध्या प्रवर ने कहा जिस वस्तु की जब वास्तविक आवश्यकता होगी तब वह अवश्य मिलेगी, यह प्राकृतिक नियम है। इसलिए संग्रह के परपंच में पडऩे की आवश्यकता नहीं है। हालांकि इसका अर्थ हाथ पर हाथ धरे बैठना भी नहीं है। जो शक्तिवान होते हुए भी श्रम नहीं करता उसकी आवश्यकता परमेश्वर भी पूरी नहीं करता। परिग्रह या अपरिग्रह एक भावना है।
सम्पतिवान भी अपने यदि सम्पत्ति का ट्रस्टी मानता है तो वह अपरिग्रह है और अङ्क्षकचन व्यक्ति भी लोभ में फंसा है तो वह परिग्रही है। गलत विचारों का संचय करना भी मानसिक अपरिग्रह है। जहां स्वामित्व का ममत्व आता है वहीं से परिग्रह हमें विचलित करने लगता है। सच्चा साधक वही है जो अङ्क्षकचनता में भी परम ऐश्वर्य को अनुभव करे।