माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के छठे स्थान के ग्यारहवें श्लोक के दूसरे भाग का विवेचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि इन्द्रियों एवं अनिन्द्रिय की अपेक्षा से सर्व जीवों के छ: प्रकार हैं| पच्चीस बोल में चौथा बोल हैं – इन्द्रिया पांच| कान, चक्षु आदि जीव के ज्ञान के माध्यम बनते हैं, अत: इन्द्रियों को ज्ञानेन्द्रिय भी कहां जाता हैं| हमारे जीवन में इन्द्रियों का महत्वपूर्ण स्थान हैं| इन्द्रिया जब तक सक्षम है, तो शरीर सक्षम है और इन्द्रियों में क्षीणता आ जाती हैं, कमजोरी पड़ जाती हैं, इसका मतलब शारीरिक सक्षमता में कमी आ गई|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि विकास की दृष्टि से सबसे पहले हैं स्पर्शनेन्द्रिय, त्वचा, जिसका व्यापार हैं चुना, जिसका विषय है स्पर्श| ऐसे अनन्त अनन्त प्राणी है, जिसके एक ही स्पर्शनेन्द्रिय हैं| ये स्थावर जीव कहलाते हैं| पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजसकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांचों के एक ही इन्द्रिय होती हैं| संसार के सबसे ज्यादा अविकसित प्राणी एकेन्द्रिय के होते हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय दो इन्द्रिय वाले प्राणी होते हैं| लट आदि वाले ये *त्रसजीव सुख प्राप्ति, दुख निवर्ती के लिए गति करते हैं| आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि प्राणियों में क्रमिक विकास में जिनके पास घ्राणेन्द्रिय, घ्राण की शक्ति होती हैं| शक्कर आदि पड़ी हैं, तो चिट्टीयां, मकोड़े आ जाते हैं| *उनके पास ऐसी शक्ति है कि वे अपने भोज्य पदार्थ के पास पहुंच जाते हैं| ये त्रिन्द्रिय जीव कहलाते है|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि चतुरिन्द्रिय में प्रथम तीन के साथ चौथी चक्षुन्द्रिय भी पाई जाती हैं| मक्खी, मच्छर ये चार इन्द्रियों वाले जीव होते हैं| पांचवें प्रकार के जीव में प्रथम चार इन्द्रियों के साथ पांचवी श्रोत्रेन्द्रिय, सुनने की समता भी पाई जाती हैं| ये इन्द्रियों की होने की दृष्टि से सबसे विकसित प्राणी होते हैं| नारकीय, देव, मनुष्य, तिर्यंच पंचेन्द्रिय हाथी, घोड़े इत्यादि इसमें आते हैं| सर्व प्राणियों का छठा विभाग हैं अनिन्द्रिय प्राणियों का|
इन्द्रियों से पार जाने वाला अनिन्द्रिय
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि इन्द्रिय जगत का विकास भी सीमित विकास हैं| इन्द्रियों से जो पार चला जाए, अनिन्द्रिय बन जाए, वो महान विकास करने वाला, महान आध्यात्मिक विकास करने वाला बन जाता हैं| तेरहवें, चौवदहवें गुणस्थान वाले केवलज्ञानी अनिन्द्रिय होते हैं| नाक, कान, आंख होते हुए भी वे अनिन्द्रिय होते हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि तात्विक आधार पर इन्द्रिया दो प्रकार की होती हैं- द्रव्य इन्द्रिया और भाव इन्द्रिया| द्रव्य इन्द्रिया पौद्गलिक हैं, पुद्गल निष्पन्न हैंं| भाव इन्द्रिया चेतसिक हैं और ये दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपक्षम से निष्पन्न होने वाली होती हैं| क्षयोपक्षमिक भाव जन्य ये हमारी भाव इन्द्रिया होती हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि केवलज्ञानी मनुष्य के क्षयोपक्षम भाव नहीं होता| क्षयोपक्षम का मतलब है थोड़ी सी प्राप्ति, जबकि एक दृष्टि से केवलज्ञानी मनुष्य के पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दर्शन, पूर्ण अमोहता, पूर्ण शक्ति प्राप्त हो गई हैं| भाव इन्द्रिया तो एक अपूर्णता की स्थिती में होने वाली निष्पत्ति हैं| केवलज्ञानी मनुष्य तो क्षायिक भाव वाले बन गये हैं, उनके क्षयोपक्षम भाव नहीं है, इसलिए उनके भाव इन्द्रिया नहीं होती, वे तो इन्द्रियातीत हो गये हैं, अतीन्द्रिय हो गए हैं| सिद्ध जीव होते हैं, उनके तो शरीर भी नहीं हैं, तो इन्द्रिया नहीं होती, तो सिद्ध भी अनिन्द्रिय की कोटी में आते हैं|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि जैसे ज्ञानेन्द्रिया होती हैं, वैसे कर्मेन्द्रिया भी होती हैं| पांच इन्द्रिया कर्मेन्द्रिया होती हैं| साधना में पांचों इन्द्रियों को मुट्ठी की तरह वश में करना होता हैं, नियन्त्रण में करना होता हैं| हम इन्द्रियों का संयम रखने का अभ्यास रखे|
मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ने के लिए करें इन्द्रियों का संयम
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि संयम कैसे करे इन्द्रियों का, वैसे तो साधना से ही संयम होता हैं| प्रतीकात्मक रूप में इन्द्रियों के संयम के लिए एक प्रयोग है – “सर्वेन्द्रिय संयम|” आचार्य प्रवर ने स्वयं प्रयोग करके बताया कि अगुंठे कान में डाल दिये, तर्जनी अंगूलीयां आंखों पर, मध्यमा नाक पर लगा दी, बाकी दो मुँह पर लगा दी यह सर्वेन्द्रिय संयम मुद्रा होती हैं| यह कुछ समय के लिए हो सकता हैं, लेकिन हमें दिन रात इन्द्रियों के संयम के लिए, अपेक्षा नहीं है तो भोजन नहीं करे, भोजन, पानी करने के बाद त्याग कर दिया, यह रसनेन्द्रिय का संयम हो गया| जीभ खाने के साथ बोलने में भी प्रयोग में आती है, तो वाणी का संयम करे| अच्छी या मनोग्य आने पर सराह कर, राग के साथ नहीं खाना और अमोग्य पर्दाथ आने पर निन्दा नहीं करना चाहिए| न राग, न द्वेष करना, न आसक्ति से खाना पिना करना|
आचार्य श्री ने आगे फरमाया कि वह बढ़िया – बढ़िया सेन्ट, इतर लगाना, वह लालचा, आकांक्षा नहीं होनी चाहिए, यह बाहरी सुगंधों में आकर्षण नहीं रखने से ऐसे घ्राणेन्द्रिय का संयम कर सकते हैं| जिन चीजों को देखना अपेक्षित नहीं है, उनकों देखना नहीं, आँख नीची कर ले, बन्द कर ले, तो यह चक्षुन्द्रिय का संयम हो जाता हैं| जिन चीजों को सुनना अपेक्षित नहीं है, तो वहां ध्यान नहीं दे, उठ कर ओर कही चले जायें| *दूसरों की निन्दा हो रही हैं, वहा क्यों हम कानों को लगाएं, उनमें रस नहीं ले,* यह श्रोत्रेन्द्रिय का संयम हो गया| कभी कभी विशेष संयम करना हो तो कान में डाटा डाल दे, सुनने में भी राग द्वेष नहीं हो| स्पर्श की सीमा के लिए कि मैं अमुक चीज का स्पर्श नहीं करूंगा, जो सर्दी, गर्मी शरीर को लगे, इसमें समता रखना, शांति रखना, यह स्पर्शनेन्द्रिय का संयम हो सकता हैं| यो पांचों इंद्रियों का संयम रखने से, साधना की दृष्टि से, हम मोक्ष की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं|
व्याकरण का लक्ष्य है, शब्दों को सिद्ध करना : साध्वी प्रमुखाश्री
साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा ने कालू यशोविलास का वर्णन करते हुए कहा कि कालूगणी के युग में संस्कृत भाषा के विकास में पण्डित रघुनन्दन ने शासन में निर्वध दान के रूप में अपनी सेवाएं दी| आपने आगे कहा कि व्याकरण का लक्ष्य है, शब्दों को सिद्ध करना| जैसे समुन्द्र को सुखाने पर भी कुछ पानी की बुन्दें रह सकती हैं, सूर्य या चन्द्रमा के प्रकाश में भी तलघर में अंधेरा रह सकता हैं, उसी तरह व्याकरण शास्त्र में सारे शब्द आ जाते हैं, फिर भी कुछ शब्द बाकी रह सकते हैं|
राष्ट्रीय संस्कार निर्माण शिविर का हुआ शुभारंभ
परम पूज्य आचार्य श्री महाश्रमण जी के पावन सान्निध्य में श्री जैन श्वेतांबर तेरापंथी महासभा के तत्वावधान में 12 से 18 वर्ष के बालक बालिकाओं का अष्ट दिवसीय राष्ट्रीय संस्कार निर्माण शिविर का हुआ शुभारंभ हुआ| आचार्य श्री ने शिविरार्थीयों को पाथेय प्रदान करते हुए “सर्वेन्द्रिय संयम मुद्रा” करवाई| मुनि श्री जितेन्द्र कुमार, महासभा के उपाध्यक्ष श्री ज्ञानचन्द आंचलिया ने अपने विचार रखें| चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति के अध्यक्ष श्री धरमचन्द लूंकड़, महामंत्री श्री रमेश बोहरा ने ध्वजारोहण किया|
*✍ प्रचार प्रसार विभाग*
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई*
स्वरूप चन्द दाँती
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति