माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सूत्र के छठे स्थान के तेइसवें सूत्र का विवेचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि अनॠद्धिमान पुरूष छह प्रकार के होते हैं- हेमवंत क्षेत्र, हेरण्य क्षेत्र, हरिवर्ष क्षेत्र, रम्यक क्षेत्र, कुरू क्षेत्र और अन्तर्द्वीप क्षेत्र के पुरूष| इन क्षेत्रों में महान् पुरूष पैदा नहीं होते| तीर्थंकर, चक्रवर्ती, साधु आदि महापुरुष पन्द्रह कर्म भूमीयों में ही पैदा होते हैं| ॠद्धि और अॠद्धि ये अपनी-अपनी सम्पदा हैं| आदमी को अपनी सम्पदा का विकास करना चाहिए, यथोचित अपनी सामर्थ्य का भी विकास करना चाहिए|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि सम्पदा दो प्रकार की होती हैं- आन्तरिक और बाह्य| बाह्य सम्पदा हैं – पद, प्रतिष्ठा, पैसा| जो गृहस्थ के लिए आवश्यक है| एक धनाड़य व्यक्ति है और साथ में उदारता है, तो उसकी जनता में, समाज में प्रतिष्ठा बढ़ती हैं, बढ़ सकती हैं| साधु के, साधक के जीवन में, बाह्य सम्पदा हैं – शरीर| शरीर स्वस्थ हैं, परमाणोपित है, सक्षम हैं, जो आत्म साधना में सहायक होता हैं| शरीर असक्षम हैं, तो साधु या गृहस्थ दोनों के लिए कठिनाई हो सकती हैं| शरीर की साधना या विभिन्न संकल्पों और प्रयोगों से आत्मा की सम्पदा को बढ़ाने का प्रयास करें|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि विनय, श्रुत, तप और आचार ये चार समाधि हैं| “जिससे समाधान मिले, वह समाधि होती हैं|” विनय की समाधि आध्यात्मिक सम्पदा हैं| हमारा विनय यथार्थ के प्रति हो| यथार्थ हैं – वीतराग वाणी, केवली प्रज्ञप्त धर्म|
जीनेश्वर कभी झूठ नहीं बोलते
आचार्य श्री ने आगे कहा कि जीनेश्वर कभी झूठ नहीं बोलते| आदमी गुस्से के कारण, लोभ के वशीभूत होकर, भय वश, या हंसी मजाक में झूठ बोलता देता हैं| जबकि जिनेश्वर कभी गुस्से में नहीं आते, न लोभ करते, न भयभीत होते, न हंसी मजाक करते, इसलिए उनसे झूठ बोला नहीं जा सकता| इसलिए जो जिनेश्वरों ने प्रवेदित किया है, वही सत्य है, वह सत्य ही हैं|
अभिवादनशीलता से बढ़ता आयुष्य, विद्या, यश और बल
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमारे पूजनीय पंच परमेष्ठी के प्रति हमारा विनय, श्रद्धा और परम् सम्मान का भाव हो| ज्ञान का भी सम्मान हो| ज्ञान व ज्ञानी की कभी आसातना नहीं करनी चाहिए| ज्ञान की आसातना से अज्ञान हो सकता हैं| चारित्र के प्रति श्रद्धा हो| मन, वचन और काया से विनय की वृद्धि हो| व्यावहारिक लोकोपचार विनय का भी महत्व है| जो अभिवादनशील हैं, बड़ों की सेवा करता है, उसके चार चीजों का विकास हो सकता हैं – आयुष्य विकसित रहता हैं, विद्या, यश और बल बढ़ता हैं| विनय करने से चित्त को प्रसन्नता, शांति मिलती हैं, समाधि मिलती हैं, समाधान भी मिलता हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि श्रुत से समाधि मिलती| ज्ञानाराधना, स्वाध्याय, आगम पठन, मनन और चितारने से श्रुत की समाधि प्राप्त हो सकती हैं| अर्थ का बोध हो जाने से शांति मिल सकती हैं, ज्ञान निर्मल रहता हैं| हर दिन का सूर्य हमें विकास की दिशा में आगे बढ़ने का साक्षी बन जाता हैं| हमारा श्रुताभ्यास बढ़ना चाहिए| जिनके पास श्रुत हैं, वे यथासंभव दूसरों को बांटने का, बताने का, पढ़ाने का प्रयास करेंगे तो खुद का ज्ञान ओर पृष्ट हो सकेगा और दूसरों पर भी उपकार हो सकेगा, वे भी ज्ञान के मार्ग में आगे बढ़ सकेंगे| पुनरावृत्तन से ज्ञान की निर्मलता बढ़ती हैं, रोज नया ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास करें|
जब तक माला नहीं, तब तक नाश्ता नहीं
आचार्य श्री ने आगे कहा कि तपस्या समाधि भी सम्पदा हैं| छोटे छोटे तप नवकारसी, पोरसी, एकाशन, आयम्बिल, उपवास, विगय वर्जन से आत्मा का घड़ा भरता रहे| साथ में चौविहार, ध्यान एवं जप की साधना चलती रहे| नमस्कार महामंत्र की एक माला रोज प्रात राश (नाश्ता) से पहले-पहले फेरने का प्रयास करें| विशेष परिस्थिति के अलावा जब तक माला नहीं, तब तक नाश्ता नहीं यह हमारी भावना रहे|
आचार्य श्री ने आचार सम्पदा के बारे में बताते हुए कहा कि श्रावक के बारह व्रत, साधु के पांच महाव्रत, समण श्रेणी के व्रत, नियम अच्छे रहे और सामान्य नोन जैन भी है, उसने अणुव्रतों के संकल्प स्वीकार किये हैं, वो उसके निर्मल रहे, अच्छे रहे| आचार की समाधि ठीक रहती हैं, तो समाधान और शांति मिलती हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि ये सब भौतिक सुख की कामना से न हो| मोक्ष प्राप्ति, आर्हत धर्म और निर्जरा की भावना हो| आचार का पालन हो| विनय, श्रुत भी आत्म कल्याण और परोपकार के लिए करे|
सूर्य उदय और अस्त दोनों कालों में रहता लालिमा युक्त
आचार्य श्री ने विशेष प्रेरणा देते हुए नवदीक्षितों को संदेश दिया कि वे इन चारों समाधियों को धारण करें, आत्मसात करें| गृहस्थ भी ध्यान दे, बाह्य संपदाएं इस जीवन तक रहे, न रहे, आध्यात्मिक संपदाएं आगे काम आ सकती हैं| इसे बढ़ाने का प्रयास करें| कभी आपदा भी आ जाए, तो मन में समता का भाव रखे| आपदा और सम्पदा दोनों बहने हैं| जैसे सूर्य उदय और अस्त काल में लालिमा युक्त होता हैं| न खुश, न उदास, दोनों समय में रक्तिमा रहती हैं| जो महान व्यक्ति होते हैं, दोनों परिस्थितियों में सम रहता हैं| हम हमारे जीवन में आध्यात्मिक ॠद्धि को बढ़ाने का प्रयास करें, यह अभिदर्शनीय हैं|
आचार्य श्री ने बंगलूर प्रवास के समय उपनगरों के संभावित प्रवास की जानकारी दी| साध्वी प्रमुखाश्री कनकप्रभा ने कालू यशोविलास का विवेचन करते हुए जयपुर और चुरू चातुर्मास की घटनाओं का प्रतिपादन किया| कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार ने किया|
*✍ प्रचार प्रसार विभाग*
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई*
स्वरूप चन्द दाँती
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति