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सुंदेशा मुथा जैन भवन कोन्डितोप में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेन सुरीश्वरजी म.सा ने कहा की :- मात्र पुलिस की वर्दी पहनने से व्यक्ति को लाठीचार्ज करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता या मात्र डॉक्टर के वेष को पहनकर कोई व्यक्ति किसी की शल्य चिकित्सा नहीं कर सकता अथवा न्यायाधीश के वेष पहनने वाला कोर्ट में जाकर न्याय नहीं कर सकता वैसे ही गुरू के लिबास पहनने मात्र से कोई सद्गुरु नहीं बन जाता हैं ।वैसे तो दुनिया में ऐसे अनेक लोग होते हैं ।
जो अपने नाम के आगे भगवान, आचार्य, उपाध्याय या सद्गुरु का लेबल लगाकर लोगो का सत्कार – सन्मान प्राप्त कर लेते हैं । परंतु हर कोई व्यक्ति सच्चे सद्गुरु नहीं होते ।सच्चे सद्गुरु तो वे हैं जो तीर्थंकर परमात्मा के बताए मोक्ष के मार्ग को बतलाकर हमारी आत्मा का कल्याण करने के लिए हमें हितोपदेश देते हैं ।
शरीर और संसार के पोषक तो संसार में अनेक हैं, अपने – अपने स्वार्थ के लिए व्यक्ति संसार के सारे व्यवहारों को करते हैं । परंतु आत्मा की चिन्ता और आत्मा का संसार से विरक्त करने का कार्य सद्गुरु ही करते हैं । सद्गुरु की आत्मा के सच्चे हितैषी होते है । इसलिए सद्गुरु वो ही बन सकता है , जो सामाजिक कार्यों से निवृत्त होकर आध्यात्मिक कार्यों से जुडे हो ।
आत्म कल्याण का मार्ग वे ही बताते हैं, जो स्वयं उस आत्म कल्याण के मार्ग का आचरण करते हो। स्वयं परमात्मा ने भी पहले आत्म कल्याण के मार्ग पर चलकर सिध्दी प्राप्त की उसके बाद ही उन्होनें अन्य को वह मार्ग बताया हैं । गुरू, परमात्मा का ही अनुसरण करने वाले होते है ।
संसार के मार्ग पर चलने वाले कभी सुखी हुए नहीं और होते नहीं हैं सच्चे सुख का रास्ता तो मोक्ष का मार्ग ही हैं ।जिस आत्मा ने मोक्ष मार्ग का सहारा लिया हैं वह अवश्य ही मोक्ष प्राप्त करता हैं ।मोक्ष के मार्ग पर चलने के लिए जो हमे आलंबन देते हैं, वे ही सच्चे सदगूरु हो सकते हैं ।