चेन्नई. राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय व भुवनरत्न विजय ने कहा कि जिस तरह गाँवों में शहरवासियों को आकड़े के फूलों में भंवरों को, मारवाड़ की धरा पर हाथियों को, दावानल से जले हुए वन में हिरणों को, चंद्र की किरणों में चक्रवाक (चकवे) को तथा अग्नि में जलचर प्राणी को आनंद नहीं मिलता, वैसे ही वैराग्यवंत आत्माओं को किसी भी भोग में आनंद नहीं मिलता। वे विषय भोगों से सदैव दूर रहती हैं। योग के उद्योग में जुड़े हुए समतावंत मानवों को यदि महिलाएं अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकती, भाईयों का बंधन भी अपनी ओर नहीं खींच सकता, मणियों के हार के प्रति मोह भी नहीं रहता, तो इन सबके पीछे समता व वैराग्य ही सबसे बड़ा कारण है। जो वैराग्य संसार रूपी कमल को नष्ट करने में चंद्रमा के समान है, कपट रूपी दीपक की कांति को दूर करने में सर्प के समान है, कामदेव के अहंकार को नष्ट करने में महादेव समान है, उत्तम बुद्धि रूपी स्त्री के लिए क्रीडग़ृह के समान है, समता को जीवंत रखकर जो आत्मा के लिए प्रिय मित्र के समान है तथा प्राणियों के लिए जो सदैव हितकारी है, ऐसा वैराग्य हमें प्राप्त हो, ऐसी भावना वैरागी जीव रखते हैं। प्राणियों का हृदय यदि स्त्रियों की क्रीड़ा में कुंठित हुआ है, अमृत जैसे मधुर भोजन में भाव रहित हुआ है, पुष्पों की सुगंध में मंद हुआ है, उत्तम ध्वनि वाले वाजिंत्रों के प्रति उत्सुकता समाप्त हो गई है तथा धन में भी आसक्ति नहीं रही तो यह सब वैराग्य का ही लक्षण है। हेमंत ऋतु में ठंडी वायु से भरे वन में रहना, ग्रीष्म ऋतु में प्रचंड सूर्य की किरणों से तपे हुए रेत के ढेर में शयन करना तथा वर्षा ऋतु में पर्वत की गुफाओं में रहना और एकांत में रहते हुए भी दुध्र्यान नहीं होना, यह सब वैराग्य का ही माहात्म्य है। घर को छोडऩा त्याग है तो उस घर को अपने भीतर के घर से निकाल देना वैराग। त्याग-वैराग से वीतराग दशा को प्राप्त करने के लिए छोड़ते हैं संसार का राग। इस अवसर पर मुनि द्वारा आलेखित ‘ज्ञानामृत से होती तृप्ति की अनुभूतिÓ की ओपन बुक एक्जाम में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाली उज्जैन जूली जयणा वीरेंद्र गोलेछा क राजेन्द्रसूरीश्वर जैन ट्रस्ट द्वारा सम्मान किया गया।
आत्मा का प्रिय मित्र है वैराग: मुनि संयमरत्न विजय
By saadhak
on
No Comments
/
1529 views