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ज्ञान वाणी

ज्ञान, शील और श्रद्धा से प्राप्त सफलता होती है अनन्त : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

ज्ञान, शील और श्रद्धा से प्राप्त सफलता होती है अनन्त : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. शनिवार को श्री एएमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने विरुत्थई विवेचन में कहा कि एक भक्त जब अपने भगवत्ता के अनुभवों को एक भक्त की प्रार्थना पर प्रस्तुत करता है तो उस समय पुच्छीशुणं का जन्म होता है। भक्ति के अनुभव से जब कोई गीत जन्मता है तो वह भगवत्तता से परिपूर्ण होता है। पंचम गंधर्व सुधर्मास्वामी के अनुभव कल्पना से नहीं बल्कि अपनी अनुभूति से प्रस्तुत कर रहे हैं। उनके गीत परमात्मा के प्रति श्रद्धा व अनुभूति से भरे हुए हैं।

सुधर्मास्वामी परमात्मा के साथ निरंतर तीस साल तक रहते हुए भी उनकी श्रद्धा और भक्ति लगातार बढ्ती रही, लगातार प्रेम बना रहा। पास रहकर भी यदि आपस में प्रेम बना रहे तो सच्चा है और यदि निकट रहने पर प्रेम में अन्तर आने लगे, उपेक्षा हो तो समझ सकते हैं कि उसमें गड़बड़ है। जब राजा प्रदेसी ने दीक्षा ग्रहण की तो सूर्यकांता रानी, जो उससे अथाह प्रेम करती थी वह भी नफरत करने लगी और उसे विष तक दे दिया। उनका कैसा चरित्र और कैसी प्रभुता होगी, पुच्छीशुणं में बताया गया है।

 कुछ को कर्म से सफलता मिलती है, किसी को परिस्थतियों से, कुछ को संयोग से मिलती है, लेकिन परमात्मा ने किसी की भी कृपा, सहयोग से सिद्धि प्राप्त नहीं की। उन्होंने अपने ज्ञान, शील और श्रद्धा से ही प्राप्त की है जो अनन्त है। कर्मों से प्राप्त की हुई सिद्धि, सुख और प्रसिद्धि शाश्वत नहीं होती, वह कुछ समय बाद नष्ट हो जाती है। लेकिन स्वयं के ज्ञान, दर्शन और शील से प्राप्त सिद्धि का कोई अन्त नहीं होता। उसकी शुरुआत तो है लेकिन अन्त नहीं, वह अनन्त होती है।

अपनी सिद्धि को अक्षय रखना चाहते हैं तो मन में भावना रखें कि जीवन में अपनी उपलब्धियां अपने ज्ञान, शील, श्रद्धा से ही प्राप्त करूंगा। जो आस्था से जुड़ता है वह कभी परेशान नहीं होता। परमात्मा की सिद्धियां निरंतर अग्रगामी और अनुत्तर है। परमात्मा परम महर्षि हैं। कोई व्यक्ति जीवन में संतोषपूर्वक आगे बढ़ रहा है या असंतोषपूर्वक, यह बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण है। संतोषी होकर चलेंगे तो आगे भी समाधान मिलेगा।

सुधर्मास्वामी परमात्मा के सिद्धि और ज्ञान के रहस्य उद्घाटित करते हुए कहते हैं कि तीर्थंकर कर्मों को शुद्ध करते हैं। परमात्मा ने अपने सभी कर्मों को ऐसा शुद्ध किया कि वे निर्मल हो गए। वे ही तीर्थंकर हैं, उनका नाम, गौत्र और शरीर सभी पावन है। परमात्मा का ज्ञान, दर्शन, शील और प्रज्ञा शाल्मली वृृक्ष के समान है, जहां सुवर्णकुमार को भी आनन्द की अनुभूति होती है। वे नन्दनवन के समान हैं।

ज्ञान, शील और श्रद्धा में प्रसन्नता की अनुभूति होने लगे तो सिद्धि और सफलता की प्राप्ति होती है। अपनी सफलता देखकर कभी किसी का तिरस्कार और ईष्या नहीं करनी चाहिए।

धर्मसभा में उपाध्याय प्रवर की प्रेरणा से अर्हम विज्जा के अंतर्गत चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों अर्हम गर्भ संस्कार, अर्हम ब्लैसफूल कपल, अर्हम पैरेंटिंग अनुष्ठान के बारे में एक डाक्युमेंट्री दिखाई गई। धर्मसभा में पेरम्बूर, मैलापुर के साथ बेंगलोर और हैदराबाद से अनेक श्रद्धालु उपस्थित रहे।

१८ नवम्बर को चातुर्मास समिति द्वारा कृतज्ञता समारोह का आयोजन किया जाएगा। २४ नवम्बर को सजोड़े भक्तामर पाठ के साथ ही प्रात: ६.१५ बजे उपाध्याय प्रवर का विहार चातुर्मास स्थल से होगा और ३० नवम्बर को नॉर्थ टाउन में एएमकेएम धर्मपेढ़ी के अंतर्गत बनाए गए स्थानक का उद्घाटन होगा और मिश्रीमलजी महाराज की पुण्यतिथि का समारोह आयोजित किया जाएगा।

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