चेन्नई: जैन श्वेताम्बर तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक, तेरापंथ धर्मसंघ के प्रथम अनुशास्ता, महामना आचार्य भिक्षु के 216वें चरमोत्सव का भव्य आयोजन चेन्नई महानगर के माधावरम में विराजित तेरापंथ धर्मसंघ के ग्यारहवें अनुशास्ता, भगवान महावीर के प्रतिनिधि, महातपस्वी आचार्यश्री महाश्रमणजी की पावन सन्निधि में परम उत्साह और उल्लासमय वातावरण में हुआ। आस्थासिक्त श्रद्धालुओं के उमड़े ज्वार से मानों पूरा चतुर्मास परिसर जनाकीर्ण बन गया। चतुर्विध धर्मसंघ का उत्साह और उल्लास अपने चरम पर था। सभी अपने आराध्य के प्रति अपने भावों के सुमन चढ़ाने का को आतुर नजर आ रहे थे, तो वहीं उमड़ी हजारों-हजारों की जनमेदिनी का शायद यही मानना था कि उन्हें तो आचार्य भिक्षु के पट्टधर आचार्यश्री महाश्रमणजी में ही आचार्य भिक्षु के दर्शन हो जाते हैं और हम इसी अभिलाषा में आचार्यश्री महाश्रमणजी की पावन सन्निधि में पहुंच जाते हैं।
माधावरम में रोज की भांति सूर्योदय तो सामान्य ही हुआ, किन्तु जैसे-जैसे समय बढ़ता गया दूर-दूर से श्रद्धालुओं को हुजूम उमड़ता चला गया। लोग अपने स्वयं के साधनों से ही नहीं, अनेक सवारी वाहनों के द्वारा भी जब आचार्यश्री महाश्रमण चतुर्मास परिसर में पहुंचने लगे तो कुछ घंटों बाद ही पूरा परिसर जनाकीर्ण बन गया। सभी लोगों के मन में एक ही आस्था का ज्वार हिलोंरे ले रहा था कि आज उनके धर्मसंघ के प्रवर्तक आचार्य भिक्षु के चरमोत्सव को अपने धर्मसंघ के वर्तमान आचार्य की मंगल सन्निधि में मनाना है। उमड़ते श्रद्धालुओं की अपार भीड़ भव्य और विशाल ‘महाश्रमण समवसरण’ में उपस्थित हुई तो इस विशाल जनमेदिनी के समक्ष विशाल पंडाल भी बौना साबित होने लगा, किन्तु सभी ने स्थानों का संकोच किया तो और लोग उसमें समाते चले गए और हजारों लोग प्रवचन पंडाल के बाहर और उसके बाहर यथानुकूल जगहों का चयन किया।

आस्था, उत्साह, उमंग और उल्लास से लबरेज श्रद्धालुओं के मध्य से होते हुए जब महातपस्वी आचार्यश्री ‘महाश्रमण समवसरण’ पहुंचे तो पूरा वातावरण ‘वन्दे गुरुवरम’ से गुंजायमान हो उठा। आचार्यश्री महाश्रमणजी ने अपनी मंगलवाणी से ‘ठाणं’ आगम के सूत्रों को व्याख्यायित करते हुए कहा कि आदमी संसार में भोग भोगता है। अपने इन्द्रिय सुखों की पूति के लिए आदमी कितना प्रयास करता है, किन्तु यह सुख अल्पकालिक होता है जो कुछ क्षण सुख देने वाला ओर लंबे समय तक दुःख देने वाला होता है। दुनिया में कोई और सुख है तो वह आध्यात्मिक सुख है। साधु को अपने जीवन में आध्यात्मिक सुख को आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिए।
हमारे तेरापंथ धर्मसंघ के आद्य प्रवर्तक, तेरापंथ के संस्थापक महामना आचार्य भिक्षु ने भौतिक सुखों का त्याग कर आध्यात्मिक सुख की ओर आगे बढ़े। आज के दिन महामना आचार्य भिक्षु ने अनशन में आत्म समाधि की अवस्था में मृत्यु का वरण किया। उनका जीवन असाधारण और विशिष्ट था। उनके जीवन में वैराग्य भाव, वैदुष्य आदि का अवलोकन किया जा सकता है। उनमें उच्च कोटि की साधना थी। उनका अभिनिष्क्रमण भी वैराग्य की भावना से ही हुआ था। आचार्य भिक्षु ने जिसे पैदा किया, पाला, पोसा आज उसी धर्मसंघ में हम साधना कर रहे हैं, मानों हम उनकी संतान हैं। गुरुदेव तुलसी ने आचार्य भिक्षु पर कितने विचार थे।
उन्होंने लिखा कि आचार्य भिक्षु में आचार की ऊंचाई तो साधना की गहराई थी। आचार्यश्री ने इस दौरान ‘ज्योति का अवतार बाबा, ज्योति ले आया’ तथा अन्य प्रासंगिक गीतों का भी आंशिक संगान किया। श्रुतधर, प्रज्ञावान पुरुष आचार्य भिक्षु को आचार्यश्री ने श्रद्धा के स्मरण करते हुए कहा कि उनके जीवन से हम सभी को प्रेरणा और ऊर्जा मिलने की मंगलकामना की। इस अवसर पर आचार्यश्री ने स्वरचित गीत ‘भिक्षु को वन्दन बारम्बार’ गीत का संगान किया। आचार्यश्री के साथ उक्त गीत को श्रद्धा के साथ चतुर्विध धर्मसंघ ने भी गाया। आचार्यश्री ने महामना आचार्य भिक्षु के जीवन के अनेक घटना प्रसंगों का वर्णन करते हुए लोगों को अपनी चेतना को पुष्ट बनाने की प्रेरणा प्रदान की।

इसके पूर्व आचार्यश्री के प्रवचन पंडाल में पधारने से पूर्व तेरापंथ धर्मसंघ की असाधारण साध्वीप्रमुखाजी ने मंगल महामंत्रोच्चार किया तो इसके साथ 216वें भिक्षु चरमोत्सव के कार्यक्रम का शुभारम्भ हो गया। आचार्यश्री के पावन पदार्पण के पश्चात् तेरापंथ युवक परिषद व किशोर मंडल-चेन्नई ने सामूहिक रूप में गीत का संगान किया। तत्पश्चात् मुमुक्षु बहनों और मुनिवृंद ने भी आचार्य भिक्षु को याद करते हुए पृथक-पृथक गीतों का संगान कर अपनी भावांजलि अर्पित की।
महाश्रमणी साध्वीप्रमुखाजी ने अपने उद्बोधन में कहा कि आचार्य भिक्षु एक ऐसा नाम है जो कानों में जाते ही असीम आस्था पैदा करता है। वे एक क्रांतिकारी पुरुष थे। उन्होंने जीवन में कंटिला रास्ता अपनाया और ऐसी क्रांति की कि वह पथ फूलों का पथ बन गया। हम उनका आस्था के साथ वंदन करें और उनका जीवन हम सभी का पथ आलोकित करता रहे। मुख्यनियोजिकाजी ने अपनी भावांजलि अर्पित करते हुए कहा कि आचार्य भिक्षु आध्यात्मिक पुरुष थे। उन्होंने राग-द्वेष को शांत करने की साधना की। उनके भीतर विशेष प्रज्ञा थी।
उन्होंने अनेक दर्शन के ग्रंथों का निर्माण किया। उनकी तर्कशक्ति प्रबल थी। वे साहित्यकार भी थे। मुख्यमुनिश्री ने कहा कि तेरापंथ के आद्य प्रवर्तक भिक्षु के जीवन में मेरु-सी ऊंचाई और सागर-सी गहराई थी। उनका संकल्प अकंप था। उनकी इन्द्रियां सत्पथगामी थीं और उनका चित्त स्थिर था। उनके भीतर सहिष्णुता थी।
कार्यक्रम के अंत में आचार्यश्री सहित चतुर्विध धर्मसंघ ने यथास्थान खड़े होकर संघगान किया। आचार्यश्री ने मंगलपाठ का उच्चारण कर कार्यक्रम की सम्पन्नता की घोषणा की। आज भी आचार्यश्री की पावन सन्निधि में श्री प्रितेश सोसोदिया ने 27 की तपस्या (मासखमण) की साथ ही एक 21 व एक 14 की तपस्या का भी प्रत्याख्यान हुआ।