वेपेरी स्थित जय वाटिका मरलेचा गार्डन में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा विषमता से समता की ओर कदम बढ़ाने चाहिए। विषमताओं का मूल कारण इंद्रियों के विषय के प्रति होने वाले विकार है। विवाद, विघटन, विपत्ति, विकृति, विफलता विकल, वियोग इन सब कारणों से ही विषमता के मार्ग पर चलते हुए जीव पतन के गर्त में जाता है।
जबकि संवाद, संगठन, संपत्ति, संस्कृति, सफलता, संकल्प और सहयोग समता भावों को प्रकट करवाते हुए साधक को सम मार्ग पर अग्रसर करते है। जिस प्रकार हवा दीपक को बुझा भी सकती है और जंगल में दावानल की आग भी फैला सकती है, उसी प्रकार मन में विषमताएं भी आ सकती है और समता भाव भी रह सकता है।
लेकिन समता भाव रखने वाला ना तो किसी के प्रति राग रखता है ना ही किसी के प्रति द्वेष भावना रखता है।
मुनि ने श्रावक के 11वां गुण मध्यस्थता का वर्णन करते हुए कहा कि जिस तरह से तराजू के दो पलडे खाली रहने पर सम रहते हैं , एक एंपायर खेल के मैदान में तटस्थ रहता है और वीणा के तार जिस समय सम रहते हैं उस समय उससे झंकार प्राप्त होती है, उसी प्रकार किसी भी प्रकार के द्वंद की स्थिति में साधक को समत्व भाव रखना चाहिए।
लाभ -अलाभ की स्थिति में व्यक्ति को यही सोचना चाहिए कि मैंने ही कमाया था और मैंने ही गम आया है। पुनः वापस कभी भी ऊपर उठने की संभावना बनी रहती है । सुख के समय कभी भी फूलना नहीं चाहिए और दुख की गाड़ियों में तड़पना नहीं चाहिए और उससे भी ज्यादा सुख और दुख दोनों ही परिस्थिति में धर्म को भूलना नहीं चाहिए ।
सुख में लीन ना बने और दुख में दीन ना बने क्योंकि सुख और दुख दोनों ही पल बीतते जाएंगे।
दुख बिना सुख का सच्चा आनंद नहीं प्राप्त हो सकता । दुख रूपी समुद्र में ही सुख रुपी मोती, दुख रुपी कीचड़ में ही सुख रुटी कमल खिलता है। दुख रुपी कांटो के बीच सुख रुपी फूल महकते हैं।
दुख से भागने की अपेक्षा उससे संघर्ष करना चाहिए और दुख की गाड़ियों में विशेषकर समभाव रखना चाहिए। शांति का मंत्र उसे ही प्राप्त हो सकता है जो नुकसान की स्थिति में भी फायदे का ही सोचता है ।
दुख में तो हर कोई भगवान का सुमिरन करता है, लेकिन यदि सुख में भी भगवान को याद किया जाए तो जीवन में दुख कभी आएगा ही नहीं। लाभ और हानि, सुख और दुख ओर कुछ नहीं स्वयं के ही पूर्व उपार्जित कर्मों का फल होते हैं ।
मुनिवृंद के सानिध्य में 15 अगस्त को रक्षाबंधन के उपलक्ष में विशेष प्रवचन एवं रक्षा कवच जाप अनुष्ठान होगा।