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ज्ञान वाणी

सुखों के पल में भी दूसरों का दु:ख महसूस करें: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

सुखों के पल में भी दूसरों का दु:ख महसूस करें: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. रविवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन कराया। उन्होंने कहा कि इंद्रभूति गौतम के पूछने पर परमात्मा महावीर बताते हैं कि एक भी ऐसी जगह नहीं है जहां यह जीव जन्म नहीं लिया हो। समुद्र में जन्मा समुद्रपाल जब एक अपराधी को सैनिकों द्वारा राजमार्ग से सजा देते हुए ले जाते देखता है। तो उसके अन्तर मन में चिंतन शुरू हो जाता है कि अपराध किया है तो उसका दंड भुगतना ही पड़ता है। कोई भी अपराध के दंड की पकड़़ से बच नहीं सकता। तीन प्रकार के दंड बताए गए हैं- मन से, वचन से और काया से। हमाने मन, वचन और काया को शस्त्र की भांति प्रयोग कर हम स्वयं को दंडित करते हैं।

इससे पहले कि मेररे गुनाह मुझे सजा दे मुझे ऐसे जीवन से मुक्त होना है और अपने मन, वचन और काया को सुरक्षित करना है। इससे ये मुझे दंड देनेवाले नहीं बल्कि बचाने वाले बनेंगे। मुझे ऐसे संयम मार्ग पर चलना है जहां से पुन: लौटा नहीं जा सके। इस प्रकार के संवेग में आकर वह अपने माता-पिता से कहता है कि मुझे अपनी आत्मा के सामथ्र्य को जाग्रत करना है और धर्म के मार्ग पर चलकर वह दीक्षा लेता है। जो संबंध महाक्लेश का कारण हैं उनको छोड़ देता है। इस संसार में मोह के संबंध दु:खी करते हैं और श्रद्धा के संबंध सुख और मोक्ष देते हैं।

समुद्रपाल मुनि ने सदैव अपने सामथ्र्य और कमियों दोनों का विचार किया, सम्मान और तिरस्कार दोनों का ही परिचय नहीं किया। अपने उद्देश्य को सदैव याद रखते हुए परम स्थिति को प्राप्त किया। वे सूर्य की भांति दूसरों को प्रकाश देते हुए मोक्ष मार्ग पर बढ़ते गए।

अरिष्टनेमी, रथनेमी और राजुल का प्रसंग बताते हुए कहा कि किसी से उपहार ग्रहण करोगे तो पुन: उसके लिए काम आना ही पड़ेगा। अरिष्टनेमी के पीछे राजुल भी दीक्षा ग्रहण करती हैं और रथनेमी राजुल के प्रति अपने प्रेम की लालसा के कारण दीक्षित होता है और उससे भोगों की लालसा छूटती नहीं है। जब राजुल के द्वारा उसे धिक्कारते हुए शब्दों का कटाक्ष लगता है तो वह उन्मुत्त हाथी के अंकुश लगने के समान सीधा हो जाता है और राहुल के चरणों में गिरकर क्षमा मांगता है।

वासना के मार्ग से भी मोक्ष का मार्ग जाता है यदि प्रेम और वासना भी एकनिष्ट हो। यह जब अनेकनिष्ट हो जाता है तो व्यक्ति नरक का भागी बनता है। परमात्मा प्रभु ने मोक्ष के अनेकों मार्गों का हमें ज्ञान कराया है। वे तरह-तरह के उपाय बताकर जीवों को मोक्ष में जाने का रास्ता बताते हैं। परमात्मा की आराधना उनसे अलग नहीं है। परमात्मा के धर्म को प्राप्त करें तो परमात्मा स्वत: प्राप्त हो जाएंगे। परमात्मा कहते हैं कि सदैव एकनिष्ठ बनकर जीएं। रिश्तों का ऐसा संबंध है कि ये जन्म-जन्मांतर में दु:ख भी देते हैं और सुख भी।

स्वर्ग में रहते हुए वैमानिक और भवनपति देव नरक की भी यात्रा करते हैं। कुछ अपने दुश्मनों को नरक में दु:ख देने और कुछ अपने स्नेहीजनों को शांति पहुंचाने जाते हैं। तीर्थंकर अरिष्टनेमी का राजुल से संबंध लगातार आठ जन्मों तक रहा। उन्होंने स्वयं के सुख के पलों में भी पशुओं के दु:खों को भी महसूस किया और भव बंधनों से मुक्त हुए। रिश्तों की गहराई को समझें और जीएं। श्रद्धा से जुड़े रिश्ते श्रद्धेय बना देते हैं। जिसे दूसरों का दु:ख और सुख अनुभव हो वही समकित और भगवान बनता है। स्वयं के सुखों में भी दूसरों का दु:ख समझने का दृष्टिकोण होना चाहिए।

कार्यक्रम में सज्जनबाई झामड़़, पुरुषवाक्कम के १०१ उपवास तप की पच्चखावणी तथा उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि चातुर्मास समिति द्वारा उन्हें प्रशस्तिपत्र एवं मोमेंटो के साथ ”तप चंद्रिकाÓÓ उपाधि से सम्मानित किया गया। चंचलबाई बाफणा के ५७ और जंवरीलाल चौधरी के २१ उपवास के पच्चखान हुए। उपस्थित जन मैदिनी ने सभी तपस्यार्थियों की अनुमोदना की। चातुर्मास समिति के अध्यक्ष अभय श्रीश्रीमाल ने कहा कि तप से आत्मा की शुद्धि और कर्म व इच्छाओं की निर्जरा होती है। जिनशासन में तपस्या का बड़ा महत्व है और चतुर्विध संघ द्वारा धर्म की प्रभावना इसी प्रकार होती रहे।

कार्यक्रम में चातुर्मास समिति के चेयरमेन नवरतनमल चोरडिय़ा, अध्यक्ष अभयश्रीश्रीमाल, कार्याध्यक्ष पदमचंद तालेड़ा, महामंत्री अजीत चोरडिय़ा, कोषाध्यक्ष जेठमल चोरडिय़ा, सुनील कोठारी,कांताबाई चोरडिय़ा तथा एएमकेएम ट्रस्ट के धर्मीचंद सिंघवी, शांतिलाल खांटेड़, पुरुषवाक्कम जैन संघ के सोहनलाल झामड़ सहित अनेक उपनगरीय क्षेत्रों से श्रावक-श्राविकाएं और समाज के गणमान्य उपस्थित रहे।

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