विभिन्न मार्गों से होता हुआ वरघोड़ा दिवाकर दरबार में पहुंचकर धर्मसभा में परिवर्तित हो गया। इस अवसर पर अपने मंगल उद्बोधन में तपस्यार्थियों की प्रशंसा करते हुए साध्वी कुमुदलता ने कहा कि श्रद्धालुओं के प्रबल पुण्योदय से ही यह ऐतिहासिक धर्म आराधना संभव हुई। कर्मों के पुण्योदय से ही इतनी तपस्याएं हुई और इतने लोग धर्म से जुड़े।
अगर तपस्यार्थी आगे आएंगे तो अन्य श्रावक-श्राविकाएं भी तपस्या के लिए प्रेरित होंगे।
देवकी कृष्ण से कहती है कि मेरे सात पुत्र हैं लेकिन मैंने किसी का बचपन नहीं देखा। श्रीकृष्ण तेले की तपस्या करते हैं और देववाणी होती है कि देवकी को पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी और वह अरिष्टनेमि भगवान से दीक्षा लेगा।
दीक्षा लेने के बाद अरिष्टनेमि की आज्ञा लेकर श्मशान में साधना करते हैं। इस दौरान वहां से सोमिल ब्राह्मण गुजरते हैं और उनके मन में मुनि गजसुकुमार के प्रति बैर भावना जाग जाती है।
उन्होंने साधरना रत मुनि के सिर पर जलते अंगारे रख दिए लेकिन गजमुनि ने समभाव रखते हुए कहा कि मेरे कर्मों की निर्जरा तो मुझे ही करना होगी और मन में ब्राह्मण के प्रति लेशमात्र भी बैर भाव उत्पन्न नहीं हुआ। इस प्रकार अपने कर्मों की निर्जरा करते हुए वह सिद्ध-बुद्ध को प्राप्त हुए।