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सहनशीलता और क्षमा संत का गहना

चेन्नई

सईदापेट जैन स्थानक में विराजित ज्ञानमुनि ने कहा कल्याण चाहते हैं तो नम्र बनकर रहना होगा। धर्म के अंदर जाने के चार गुर हैं-पहला क्षमा यानी सहनशील होना चाहिए। इसी से एकता रहती है। दूसरे को निभाया जा सकता है। यह व्यक्ति को मजबूत करती है। दूसरा है सहनशीलता। क्षमा और सहनशीलता संत का आ ाूषण है। तीसरा विनय-द्वार। विनय धर्म का मूल है। चौथा सरलता, यह धर्म का पात्र है। सरल पात्र में ही धर्म टिकता है। कौवा बाहर से ही नहीं अंदर से भी काला है जबकि बगुला बाहर से सफेद और अंदर काला है। वह बाहर से तो साधु दिखता है लेकिन उसके काला भरा है। बगुला जैसे धर्मी बाहर तो दिखते धार्मिक हैं लेकिन अंदर पाप से भरे होते हैं। मुनि ने संथारे पर प्रकाश डालते हुए बताया कि संथारे से पहले आलोचना करना और अपने पूरे जीवन के पाप बोलना, फिर प्रतिक्रमण के बाद संथारा किया जाता है। तभी आत्मशांति मिलता है। जो सरल हैं वही संथारा प्राप्त कर सकता है। जो पाप को पाप समझता है वही सरल है। जिसे अपने पाप कांटे के समान लगते हैं वही सरल है और वही प्रायश्चित कर सकता है एवं पापों का नाश कर सकता है। संतोष अर्थात शांति व सुख। जहां लोभ है वहां दौड़भाग एवं अशांति है। लोभ रात-दिन दौड़ाता है एवं बेचैन रखता है जबकि संतोषी सदा सुखी रहता है। क्रोध को क्षमा से, मान को विनय से, माया को सरलता से तथा लोग को संतोष से जीता जा सकता है। इन चारों कषायों का नाश होने से निश्चित ही कल्याण संभव है। संचालन राजेंद्र लूंकड़ ने किया।

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