चेन्नई. कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा सरलता धर्म है एवं वक्रता अधर्म। सीधी लकड़ी फर्नीचर बनाने के काम आती है और टेढ़ी चूल्हा जलाने के। सरल बनना अलग है और बड़ा बनना अलग। आदमी ऊपर से बड़ा बन जाता है पर अंदर से वक्र मायावी बना रहता है। रावण विद्वान था पर महाकपटी व छली था।
भीतर की वक्रता को निकालना कठिन है। हमने जिंदगी को बाजार बना दिया है। एक दुकानदार का रूप दे दिया है। हर आदमी बिक रहा है। किसी का थोड़ा किसी का ज्यादा दाम है। कोई खुशामद से बिकता है, कोई पैसे से। सभी कैरियर की तरफ भाग रहे हैं। सबके मन में चालाकी, वक्रता छल कपट भरा पड़ा है। राजनीति, मायाचारी का अजब घर है। सोने के लिए भी जाएं तो छल कपट है। धुला तकिया स्वयं ले लेंगे गंदा दूसरों को देंगे। पढऩे जाएं या मंदिर जाएं तो छल कपट है। वस्तु की उपयोगिता के कारण मायाचारी होती है।
उपयोगिता हटाएं तो छल कपट स्वत: हट जाए। सरलता अपने आप आ जाएगी। फिर चोरी नहीं होगी। वस्तु जितनी ज्यादा कीमती होती है उतनी ज्यादा चोरी होती है। हत्या होगी, मायाचारी होगी। वस्तु का मूल्य रहने दो कीमत हटा दो। सरलता आ जाएगी। हम हर वस्तु व हर आदमी की कीमत लगाते हैं। कंपनी वाले जॉब में योग्यता की कीमत लगाते हैं।
ज्यादा वेतन के नाम पर व्यक्ति को खरीद लेते हंै। देश में पहले अनपढ़ दास बिकते थे वर्तमान में साक्षर बिकते हैं। जिस दिन आदमी अपना मूल्य जान जाएगा उस दिन वस्तुओं का महत्व कम हो जाएगा। उपयोगिता घट जाएगी। परिग्रह संग्रह घट जाएगा। कर्म भूमि में छल कपट व रागद्वेष की बहुलता है। हर मनुष्य के अंदर छल कपट रागद्वेष और प्रतिस्पर्धा का भाव भरा है। आर्जव धर्म कहता है अंगूर के समान भीतर बाहर से एक हो जाओ।