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ज्ञान वाणी

समाधान चाहिए तो चेतना और श्रद्धा के हाथ फैलाएं : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

समाधान चाहिए तो चेतना और श्रद्धा के हाथ फैलाएं : उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. सोमवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने परमात्मा प्रभु महावीर के समवशरण का ध्यान और रचना अपने अन्तर में कराते हुए जीवन को शिखर पर पहुंचाने वाली शिखर अनुत्तर देशना की आराधना उत्तराध्ययन सूत्र का श्रवण कराया।

उन्होंने कहा कि परमात्मा महावीर के गंधर्व पद को प्राप्त करने का सौभाग्य मिला जिन्हें मिला वे तीनों इंद्रभूति गौतम, अग्निभूति और वायुभूति तीनों सगे भाई थे। जब तेईसों परमात्मा केवलज्ञान प्राप्त करते हैं तो उनके गंधर्व उनके पास चले आते हैं। लेकिन भगवान महावीर को जब केवलज्ञान हुआ, समवशरण हुआ तो इंद्रभूति गौतम, अग्नीभूति और वायुभूति समीप नहीं थे। उनके ग्यारह गंधर्व मध्य पावा में सुमिल ब्राह्मण के अंागन में 15 दिन चलनेवाले यज्ञ अपने500 सौ शिष्यों के साथ विराट और विशाल यज्ञ कर रहे थे।

वे उसमें इतना डूब गए थे कि उन्हें अपने जन्मजनमांतर के साथी परमात्मा की सिद्धी का भी अहसास नहीं हुआ था। वासना और कामना के रिश्ते मोह समाप्त होने के साथ ही खत्म हो जाते हंैं। लेकिन जिनमें लेना कुछ नहीं होता केवल देना ही होता है उन रिश्तों की शक्ति मोहनीय कर्म समाप्त होने के बाद भी बनी रहती है। केवलज्ञान होने के बाद तीर्थंकर परमात्मा प्रभु महावीर चल पड़ते हैं, वे अपनी लब्धि का उपयोग न करते हुए पैदल चलकर अपने भक्त के पास जाते हैं। ऐसे भक्त जो भगवान को भूल गए हैं। उसके लिए लगभग आठ कोस का विहार करके जाते हैं।


हम लोगों की समस्याओं का समाधान न होने का कारण हमारी श्रद्धा न होना है। परमात्मा तो जवाब दे देते हैं लेकिन हम अपने लेने के रास्ते खुले नहीं रखते हैं। हाथ अपने हाथ बांधकर कुछ लेने का प्रयास करते हैं तो कैसे पा सकेंगे। हमें चेतना और श्रद्धा के हाथ फैलाने की आवश्यकता है।

इंद्रभूति परमात्मा से जब भी कुछ पूछते हैं, तो उन्हें देवमय, चैतनमय स्वीकार करते हैं और उनकी वंदना करते हैं, उन्हें कल्याणमय, मंगलमय और देव महसूस करते हैं तो उनकी सभी शंकाओं का समाधान उन्हें प्राप्त होता है। न समझने की स्थिति परमात्मा उन्हें असंख्य उदाहरण और तरीकों से समझाते हैं। कुछ पाने और पूछने के लिए श्रद्धा करनी पड़ती है, तभी आपकी समस्या का समाधान होता है। जब तक समाधान नही होता है तब तक इंद्रभूति पूछते ही चले जाते हैं। कई बार परमात्मा बहुत जवाब देते हैं लेकिन इंद्रभूति को समझ नहीं आती है। परमात्मा उन्हें असंख्य उदाहरण से बताते जाते हैं।


बिना गंधर्व के परिवार, समाज और संघ भी नहीं चलता है हमें भी अपने जीवन में इंद्रभूति गौतम के समान बनना चाहिए और अपने स्वजनों की शंकाओं और मन की गुत्थियों को सुलझाना चाहिए। इंद्रभूति गौतम का समर्पण अनूठा है। परमात्मा के प्रति असीम भक्ति है और अनन्त सामथ्र्य होने के बाद भी परमात्मा की आज्ञा का चरम सीमा तक पालन करते हैं।

परमात्मा का पूरी सृष्टि का विज्ञान है कि छह तत्त्व है जीव, पुद्गल, धर्मास्थिकाय, अधर्मास्थिकाय, आकाशस्थिकाय और समय। इनका बेसिक विज्ञान यदि समझ लिया तो जीवन में जीना आसान हो जाएगा। पहला जीव। दूसरा पुद्गल-वर्ण, गंध, स्पर्श, जिसके छुआ जा सके। तीसरा धर्मास्थिकाय- जो चलने के लिए आलंबन का काम करे, उसके अस्थित्व में निरंतर कार्य होता है। चौथाअधर्मास्थिकाय- निरंतर गति नहीं होती है, वह टिका हुआ है। पांचवां आकास्थिकाय और छठा है समय।


जब मन स्थिर करना हो तो अधर्मास्थिकाय का आलंन होगा, वह है लेकिन उसे ग्रहण करना पड़ता है जैसे हवा, उजाला आदि। आकास्थिकाय का अर्थ है जहां पर स्पेस है, ये होता है तो ही डेवलपमेंट मिलता है। समय- निरंतर बदलता रहता है। यह बदलाव की प्रक्रिया ही समय है, इसका कोई विकल्प नहीं है। इन छ तत्त्वों के ही संयोग से यह संसार चलता है।

चार तत्त्व- समय, आकाश, धर्मास्थिकाय और अधार्मस्थिकाय निष्क्रिय है, केवल पुद्गल या पदार्थ और जीव ही सक्रिय है। जो भी क्रियाएं और प्रतिक्रियाएं होती है वह इन दो तत्त्वों के ही हाथ में है। पुद्गल काम आता है लेकिन स्वयं कोई काम नहीं करता है। जीव तो उपयोगी भी है और उपयोग करता भी है। उसका स्वयं का नुकसान और लाभ दोनों है, अपना स्वयं का विजन है। पुद्गल का अपना कोई लाभ-हानि नहीं होता है। जैन दर्शन कहता है कि इस संसार को किसी ने बनाया नहीं है और कोई इसका संचालन नहीं करता है। संसार को चलाने वाले मात्र ये छह घटक ही हैं।


जीवन में मर्यादाओं का पालन करना चाहिए, घर की बातें घर में ही करनी चाहिए न कि बाहर। परमात्मा और तीर्थंकर भगवंत के चरित्रों को अंगीकार करें, उसे जीवन में अनुशरण करें। जीवन में संकट मर्यादाओं के टूटने से ही आते हैं। परमात्मा कहते हैं कि पदार्थ के दो घटक एक निश्चित अनुपात में मिलकर ही वस्तु का निर्माण होता है- एक स्निग्ध या गीला और दूसरा रूक्ष या सूखा। इसी के कारण बनने और टूटने की प्रक्रिया होती है।

इनसे ही शरीर का निर्माण होता है। इस यही नकारात्मक और सकारात्मक का मिश्रण को यदि समझ लिया तो भाषा, शब्द या विचार कुछ भी हो उसकी संरचना समझ आ जाएगी। हम सभी को भविष्य के हाथ तैयार करने हैं, अपने परिवारजनों के साथ उत्तराध्ययन सूत्र की भक्ति-आराधना और समर्पण का अनुष्ठान करें। दोपहर में ३ से ४ गौतमस्वामी और सुधर्मास्वामी के आगमपाठों की आराधना और पुच्छीसुणं की आराधना की गई।

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