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ज्ञान वाणी

समभाव को बनाएं स्वभाव: जयधुरंधर मुनि

तिरुवल्लूर. आजकल समभाव का अभाव है लेकिन इसी समभाव को स्वभाव बनाने से विभाव दूर हो जाता है। जो साधक विषमता से समता की ओर बढ़ता है वही विकृति को संस्कृति में बदलता है। यह उद्बोधन तिरुवल्लूर स्थित महावीर तातेड़ के निवास में विराजित जयधुरंधर मुनि ने दिया।
उन्होंने कहा विषमता विष और समता अमृत है। समता से जीव अमर पद को प्राप्त कर लेता है, वीतराग बन जाता है। श्रावक के 21 में से एक गुण मध्यस्थ बताया है जिसका अर्थ है परिस्थिति चाहे अनुकूल हो या प्रतिकूल, लाभ हो या हानि, सुख हो या दुख, जन्म हो या मरण, मान हो या अभिमान हर समय समभाव में रहना चाहिए।
उन्होंने कहा यह समत्व की साधना जीवन की शांति का एक अदभुत मंत्र है। कर्म सिद्धांत को जानने वाला साधक समभाव में सहज आगे बढ़ सकता है क्योंकि वह जानता है कि जो कुछ भी उसे मिल रहा है वह उसके पाप-पुण्य, शुभ-अशुभ कर्मों के कारण ही मिल रहा है। 

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