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ज्ञान वाणी

संघ प्रासाद है और मर्यादाएँ स्तम्भ हैं: आचार्य श्री महाश्रमण

संघ प्रासाद है और मर्यादाएँ स्तम्भ हैं: आचार्य श्री महाश्रमण

माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में चतुर्दशी पर हाजरी वाचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने साधु समाज को संबोधित करते हुए, धर्मसभा को प्रेरणा प्रदान करते हुए कहा कि संघ एक प्रासाद है, मर्यादाएँ स्तम्भ हैं| प्रासाद की सुरक्षा के लिए मर्यादा रूपी स्तम्भ को मजबूत रखना जरूरी हैं| तेरापंथ हमारा एक दल हैं, एक गुट हैं| हम संघ विरोधी किसी प्रकार की गतिविधि नहीं करे| संघ या संघ के किसी भी सदस्य की फालतू, उतरती बातों से दूर रहना चाहिए| मुनि शरीर को छोड़ दे, लेकिन धर्मशासन को नहीं छोड़े|

आचार्य श्री ने आगे कहा कि संघनिष्ठा बड़ी चीज हैं| जो साधु चाहे पढ़ा लिखा नहीं है, व्याख्यान सही नहीं दे सकता, लेकिन संघ में रहता है, आज्ञा में रहता है, अनुशासन में चलता है, बहुत बड़ी बात हैं| “संघ में रहने वाला माला का मणिया हैं|” माला में जो मणिया होता हैं, उसको हम हाथ में लेते हैं, जपते हैं| जो माला से गिर जाता हैं, अलग हो जाता हैं, उसको कौन हाथ में लेता हैं| पहाड़ से टूटे हुए पत्थर, पेड़ से गिरे हुए पत्ते, पैरों से कुचले जाते हैं, ठोकरें खाते हैं, इधर उधर बिखर जाते हैं| तो यह संघ, संगठन माला के समान हैं, पहाड़ के समान हैं, पेड़ के समान हैं| जो अनुशासन रूपी माला में रहता हैं, वह विकास को प्राप्त करता हैं|

संघ संघ होता, अलगाव अलगाव

साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका रूपी चतुर्विध धर्मसंघ को विशेष पाथेय प्रदान करते हुए आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमें माला के मणिये की तरह संलग्न रहना चाहिए, न कि तुच्छ बात को लेकर अलग गिरना चाहिए, अलग होना चाहिए| माला से अलग हुए मणिये की जगह दूसरे मणिये को डाल सकते हैं, लेकिन जो अलग हो गया, उसका क्या होगा? संघ संघ होता है, अलगाव अलगाव होता हैं| तो अनुशासन में रहने वाले सम्मानीय हैं| सभी साधु साध्वीयों ने लेख पत्र का वाचन किया|

हर आदमी, हर आदमी के नहीं होता समकक्ष

ठाणं सूत्र के छठे स्थान के इक्कीसवें सूत्र का विवेचन करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि हमारी दुनिया में मनुष्य होते हैं| परंतु मनुष्य मनुष्य में अंतर हो सकता हैं| हर आदमी, हर आदमी के समकक्ष, सदृश्य नहीं होता| कुछ उत्तम कोटि के, कुछ मध्य स्तर के और कुछ नीचे स्तर के होते हैं, हो सकते हैं| ऋद्धिमान मनुष्य छह प्रकार के होते हैं- अर्हत् (तीर्थंकर),  चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, चारण और  विद्याधर|

आचार्य श्री ने आगे कहा कि दुनिया को दो भागों में बांटे, एक अध्यात्म की दुनिया और दूसरी भौतिकता की दुनिया| अध्यात्म की दुनिया में सर्वोच्च पुरूष अर्हत् होते हैं और भौतिक दुनिया में सर्वोच्च पुरूष चक्रवर्ती होते हैं| अध्यात्म की दुनिया में तीर्थंकर और भौतिक दुनिया में चक्रवर्ती से कोई बड़ा व्यक्ति नहीं होता| तीर्थंकर अध्यात्म के प्रमाणिक प्रवक्ता होते हैं, स्वाधिकृत कार्यकारी तीर्थंकर होते हैं और भौतिक दुनिया में सर्वोच्च सत्ताधीश चक्रवर्ती होता हैं|

तीर्थंकर से ज्यादा कोई पुण्यशाली पुरूष नहीं

आचार्य श्री ने आगे कहा कि तीर्थंकर में अध्यात्म की ऋद्धि के साथ, भौतिकता के रूप में पुण्याई भी होती हैं| अध्यात्म जगत में तीर्थंकर से ज्यादा कोई पुण्यशाली पुरूष नहीं होता| तीर्थंकर ऋदिमान इसलिए कहे जाते हैं कि उनके पास एक ओर अध्यात्म की परम सम्पदा होती हैं और साथ में पुण्यवता की भी विशिष्ट संपदा होती हैं| वे प्रवचनकार, अध्यात्म जगत के नेतृत्व करने वाले होते हैं|

आचार्य श्री ने आगे कहा कि कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं, जो एक ही जीवन काल में चक्रवर्तीत्व भी भोगते है और फिर तीर्थंकर पद को भी अनुभव कर लेते हैं, बन जाते हैं|भगवान शांतिनाथ, भगवान कुंथुनाथ, भगवान अरनाथ ये चक्रवर्ती भी बने और उसी जीवन काल में तीर्थंकर भी बन गये| बलदेव और वासुदेव दोनों भाई होते हैं| चक्रवर्ती छह खण्ड के स्वामी होते हैं, पर वासुदेव तीन खण्ड के ही स्वामी होते हैं|

कर्म का न्यायालय होता निष्पक्ष

आचार्य श्री ने आगे कहा कि कर्म किसी को नहीं छोड़ता| उनका न्यायालय इतना निष्पक्ष है कि और तो मान ले यहाँ के न्यायालय से कही कोई न्याय करने में भूल हो जाये, कर्म ऐसा न्यायालय हैं कि कोई भूल नहीं होती| बड़े से बड़े तीर्थंकर बनने वाले आदमी को भी सजा मिल जाती हैं और छोटो की तो बात ही क्या? भगवान महावीर को भी अपने त्रिपृष्ट वासुदेव के भव में मृत्यु के बाद सातवीं नरक में रहना पड़ा था| चारण और विद्याधर साधु होते हैं, वे गमनागमन की विशेष लब्धि से आकाश मार्ग से आ जा सकते हैं|

धर्मसंघों में तीर्थंकर के प्रतिनिधि होते आचार्य

आश्विन शुक्ला चतुर्दशी के दिन तेरापंथ के चौथे आचार्य श्री जीतमलजी के जन्मदिन पर आचार्य श्री ने कहा कि धर्मसंघों में तीर्थंकर के प्रतिनिधि आचार्य होते हैं| आचार्य तो अनेक होते हैं, लेकिन सारे एक समान नहीं होते| आचार्य श्री जीतमलजी को प्रज्ञा पुरूष जयाचार्य कहा जाता है, क्योंकि उनमेें ज्ञान की विशेष साधना थी, भगवती जैसे ग्रन्थ की उन्होंने रचना की थी|

आचार्य श्री ने आगे कहा कि जयाचार्य का संघीय प्रबंधन बहुत उच्च कोटि का था| आज जो तेरापंथ धर्मसंघ का इतना सुव्यवस्थित निखरा हुआ रूप प्राप्त हैं, उसमें और भी आचार्यों का योगदान हैं ही, लेकिन जो जयाचार्य ने व्यवस्थाएँ दी वे आज भी अविछिन्न हैं| एक ओर ज्ञान की आराधना महत्वपूर्ण है, तो दूसरी ओर संघ का प्रबंधन, प्रशासन, विकास, कल्पना आदि बड़ा महत्वपूर्ण कार्य होता हैं| ये दोनों जयाचार्य में थे|  इस आधार पर जयाचार्य को ॠद्धिमान पुरूष कह सकते हैं|

शासनश्री साध्वी चन्द्रकलाजी” की स्मृति सभा का हुआ आयोजन

हिसार में सागारी संथारे के साथ सोमवार को देवलोक हुई| शासनश्री साध्वी चन्द्रकलाजी” की स्मृति सभा में पूज्य प्रवर और साध्वी प्रमुखाश्री ने उनके जीवन का विवेचन किया और सभी ने चार लोगस्स का ध्यान किया| कार्यक्रम का कुशल संचालन मुनि श्री दिनेश कुमार ने किया|

   *✍ प्रचार प्रसार विभाग*
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई*

स्वरूप  चन्द  दाँती
विभागाध्यक्ष  :  प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति

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