चेन्नई. वेपेरी स्थित जयवाटिका मरलेचा गार्डन में जयधुरंधर मुनि ने कहा आज हर इंसान शांति चाहता है परंतु शांति उसे ही प्राप्त हो सकती है जिसका स्वभाव शांत हो। बाह्य शांति के लिए भीतर में शांति होना जरूरी है। शांति की प्राप्ति के लिए व्यक्ति को अपने स्वभाव में रमण करना होगा। विभाव दशा में मनुष्य क्रोधी हो जाता है जिसके परिणाम स्वरूप वह चिड़चिड़ा बनकर स्वयं भी अशांत बनता है और दूसरे की शांति भी छीन लेता है।
उन्होंने कहा मनुष्य के जो भाव रहते हैं वह अवश्य ही चेहरे पर प्रतिबिंबित होते हैं। शिशु सम सौम्य व्यक्ति हरेक के लिए प्रिय होता है। आत्मा जब विभाव दशा में रहती है उस समय आत्म-गुण आवृत हो जाते हैं। स्वभाव और विभाव यह दोनों दशाएं आत्मा की ही होती हैं। आत्मा में ही राम है तो रावण भी है।
एक श्रावक को बुराइयों को छोडक़र अच्छाइयों की ओर बढऩा चाहिए। विभाव को छोड़ स्वभाव में रमण करना चाहिए और अवगुणों को छोडक़र गुणों को ग्रहण करना चाहिए।
जब शरीर भी विकृति अपने भीतर नहीं रखता, तो आत्मा भला क्यों विकृति रखे! आत्मा का स्वभाव है क्षमा और विभाव दशा है क्रोध। शांति प्राप्त करने के लिए स्वयं को शांत बनना होगा। छोटी-छोटी बातों में उलझने के कारण सौम्यता घटती जा रही है।
मुनि ने श्रावकों के 21 गुणों के अंतर्गत तीसरे गुण का वर्णन करते हुए कहा तनाव, चंचलता, आकुलता, उद्विग्नता से रहित होकर प्रकृति से सौम्य बनना ही श्रावक की पहचान है।
उन्होंने दृष्टांत के माध्यम से बताया कि किस तरह जीवन में घटित होने वाली छोटी-छोटी घटनाओं में सौम्यता अपनानी चाहिये। प्रीति बाघमार एवं पूजा मूथा ने 11 की तपस्या अंगीकार की। उनका सम्मान संघ के द्वारा किया गया।