चेन्नई. कोंडीतोप स्थित सुंदेश मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने उत्तम आकिंचन्य धर्म का विवेचन करते हुए कहा शरीर की आवश्यकता गुलाम बनाती है। भूख सबसे बड़ा रोग है। पेट के खातिर मनुष्य पापकर्म करता है। पेट की मांग के साथ जब मन की भी मांग जुड़ जाती है तो मनुष्य आधा हो जाता है। उन्होंने कहा, पेट की मांग को बहुत सीमित है। आकिंचन्य होने के लिए मन की गुलामी से मुक्त होना जरूरी है। जब हम किसी दूसरे पर निर्भर होते हैं तो मन अशुद्ध होने लगता है। कामनाएं व वासनाएं मन को अशुद्ध बनाती हैं।
जीवन में तीन प्रकार की जरूरतें होती हैं – शरीर की, मन की और आत्मा की। शरीर की आवश्यकता रोटी, कपड़ा और मकान है। इसके बिना शरीर सुरक्षित व जीवित नहीं रह सकता। मन की आवश्यकता संगीत-साहित्य कला है। शरीर जब थक जाता है तो मनोरंजन चाहता है। मन खाली नहीं बैठता, कुछ न कुछ करता रहता है। मन कुछ करके दिखाना चाहता है और कुछ पाना चाहता है। जब इन दोनों से ऊब जाता है तो तीसरी आवश्यकता जन्म लेती है आत्मा की। पहले शरीर मांगता है, फिर मन मांगता है और जब मन ऊब जाता है तब आत्मा मांगती है। आत्मा की आवश्यकता जागृत होती ही शरीर और मन की जरूरतें समाप्त हो जाती हैं। आत्मा जागृत होते ही व्यक्ति इन्द्रियों का मालिक हो जाता है।
उन्होंने कहा, आकांक्षाएं मन को कमजोर बनाती है। अत: अन्त:करण जिसका शुद्ध होता है वही आकिंचन्य होता है। यदि जीवन का आनंद लेना चाहते हैं तो स्वयं को आकिंचन्य बनाओ। जीवन आनंद की लहर है, आनंद की सरिता है। लेकिन इसका अनुभव उसी को होता है जिसने स्वयं को वीतरागी आकिंचन्य साधक बना लिया हो।