पूर्वजन्म का सिद्धांत बड़ा महत्वपूर्ण है, ऐसा लगता है हमारे जीवन पर पूर्व जन्म की छाया रहती हैं| पूर्वजन्म का प्रभाव वर्तमान जीवन पर रहता है| कोई व्यक्ति ऋद्धिवान होता है, बुद्धिमान होता है, शांत होता है, भौतिक सुखों से विरागी-संयम प्रिय होता है, तो कोई व्यक्ति इससे उलट मूर्ख होता है, दरिद्री होता है, क्रोधी होता है और भौतिक सुखों में आसक्त होता है| इन स्थितियों के संदर्भ में वर्तमान जीवन की घटनाओं को तो खोजा जा सकता है| वह हमारे सामने प्रत्यक्ष होती हैं|
परंतु इन स्थितियों का गहराई में, मूल में है, वह भीतर के पिछले जन्म तक चला जाता है| पिछले जन्म के वर्तमान जीवन की परिस्थितियों का बीच संबंध खोजा जा सकता है| एक आदमी साधु बनता है, वैराग्यमय उसका विचार हैं, भाव हैं, परिणाम है, तो संभव है उसने पिछले जन्म मैं भी कहीं न कहीं साधना की है| उसका प्रभाव, उसकी छाया यहां पड़ती हैं और वह यहां भी वैराग्यवान बनता है और आगे विकास भी संभवत कर सकता है, उपरोक्त विचार माधावरम स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण सभागार में “बोधी दिवस” के अवसर पर अपने आराध्य आचार्य भिक्षु की अभिवंदना में अभिव्यक्ति देते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहे|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हम प्रत्यक्ष को तो देख लेते हैं, परोक्ष को देखना हर किसी के बस की बात नहीं है| पर जो परोक्ष को भी अपने ज्ञान से जान ले या सिद्धांत के आधार पर जान ले, तो कुछ असाधारण बात समझ में आ सकती है, ज्ञात हो सकती हैं| हमारे जीवन पर भाग्य का भी प्रभाव होता है| भाग्य साथ देता है तो आदमी कितना आगे बढ़ जाता है और भाग्य साथ ना दे तो आगे भी नहीं बढ़ पाता, सफलता भी नहीं मिल पाती|
भाग्य की बात जो कुछ भीतर में छिपी होती है,आवृत होती हैं और कई लोग भाग्य की बात को भी अपने ज्ञान द्वारा जानने का प्रयास करते हैं, कि इस जातक का भाग्य कैसा है| आचार्य श्री ने आगे कहा कि संत भीखणजी के मन में साधु बनने की भावना पैदा हुई| वर्तमान उस जीवन की परिस्थितियों ने भी योगदान दिया ही होगा और साथ में ऐसा प्रतीत होता है, उनकी पिछले जन्म की साधना के प्रभाव ने अपना चमत्कार दिखाया होगा और उनका मन साधना करने के लिए आतुर हो गया, उत्सुक हो गया|
आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि वह क्षेत्र महिमामंडित होता है, जहां पर जन्म लेने वाला बच्चा विशिष्ट व्यक्ति बन जाता है और विशेष काम करता है| महापुरुषत्व को धारण कर लेता है| उस आधार पर उसकी जन्मभूमि भी गरिमामय बन जाती हैं| ना केवल जन्म भूमि, वे माता – पिता भी मानों धन्य हो जाते हैं, जिन की संतान कुछ विशेष अच्छा काम करने वाली बनती है| जिनकी संतान अपने पुरुषार्थ और भाग्य से परोपकार के क्षेत्र में आगे बढ़ जाती हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि आज ही के दिन आचार्य भीखणजी का कंटालिया ग्राम में शाह बल्लूजी संकलेचा के घर माँ दीपां बाई की कोख से जन्म हुआ था। वे जन्म से ही कुशाग्र बुद्धि वाले,गंभीर और साहसी थे। वे शुरू से ही अध्यात्म प्रेमी थे| जैसा कि उस जमाने मे होता था, उनकी छोटी उम्र में बगड़ी ग्राम में शादी हुई। उनकी पत्नी सुगणि बाई भी उनके ही विचारों वाली थी।हालांकि उनका मन संसार के भोगों से विमुख था, पर मां की बात माननी पड़ी, क्योंकि पिताजी का स्वर्गवास हो गया था और माता पिता का दोहरा दायित्व मां दीपांजी निभा रही थी। दाम्पत्य जीवन मे भी उनकी साधना निरन्तर चल रही थी| दोनों ने ही संयमी बनने का निश्चय किया| पर नियति को कुछ और ही मंजूर था| उनकी पत्नि का असमय में देहांत हो गया| उनकी भावना प्रबल से प्रबलतम हुई| पर उनकी माता का मोह उसमे बाधक था| उन्होंने युक्ति से काम लिया और उस वक्त के प्रभावी आचार्य श्री रुघनाथजी से अपने घर पधारने का निवेदन किया|
आचार्य श्री रघुनाथजी ने समझाते हुए दीपांजी से कहा कि तुम्हारा बेटा भीखण साधु बनना चाहता है| जैसा कि तीर्थंकर की माता 14 स्वप्न देखती है, उसमें एक सिंह का भी देखती है| राजा तो केवल एक नगर का होता है, तुम्हारा बेटा पूरे विश्व का कल्याण करने वाला साधु बनेगा| बात दीपामाँ के जेहन में बैठ गई और खुशी खुशी दीक्षा की अनुमति दे दी। संत भीखणजी ने शास्रों का स्वाध्याय किया तो पता चला कि आगम सम्मत आचार नहीं पाला जा रहा है| निवेदन भी किया,और उस समय संयोग ऐसा बना कि राजनगर मेवाड़ के श्रावकों ने वंदना करनी छोड़ दी|
वहां भीखणजी को भेजा गया| वहां भी उन्होंने शास्त्रो का खूब शोधन किया| अपने व्यवहार से उन श्रावकों ने वन्दना तो पुनः करनी शुरू कर दी, पर स्वयं भिक्षु के दिल को समाधान नहीं मिला| उनकी अंतरात्मा ने उनको सही का पक्ष लेने को कहा, कई चर्चाएं हुई, अंततः आज ही के दिन उनको बोधि मिली और आषाढ़ी पूर्णिमा को नव दीक्षा ली| वो ही तेरापन्थ स्थापना दिवस बन गया। साध्वीप्रमुखा श्री कनकप्रभाजी ने कहां की शास्त्रों में बोधि के तीन प्रकार बताए गए हैं – ज्ञान बोधि, दर्शन बोधि और चरित्र बोधि| बोधि का अर्थ है सम्यक ज्ञान, जिस उपाय से सही ज्ञान उत्पन्न होता है|
धर्म के परिपेक्ष में बोधि का अर्थ होता है आत्मबोध, मोक्ष मार्ग का बोध| आचार्य भिक्षु को आज के दिन विशिष्ट बोधि प्राप्त हुई, उसको निमित्त बना कर उनके जन्मदिवस को बोधि दिवस के रूप में मनाया जाता है|
साध्वीप्रमुखा श्री ने कहा कि साधु बनने का उद्देश्य होता है कर्मों का हल्कापन हो, मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो| सुविधा मिले या ना मिले, लेकिन प्रभुता के लिए अडिग रहना| आचार्य भिक्षु आचार विचार पर अडिग थे, निष्ठावान थे, कठिनाई को सहन कर भी सत्य मार्ग पर चलते थे| इस अवसर पर मुनि योगेशकुमारजी, मुनि मननकुमारजी, शासनश्री साध्वी जीनप्रभाजी, साध्वी प्रमिलाकुमारीजी, समणी कुसुमप्रज्ञाजी, गौतमचंद सेठिया ने भी आचार्य भिक्षु की अभिवंदना में अपने विचार रखें|