चेन्नई. साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित संयमरत्न विजय ने कहा कि व्यक्ति स्वयं ही अपना मित्र होता है, अन्य बाहर के मित्रों की चाह रखनी चाहिए। ईश्वर भी उसी की सहायता करता है जो अपनी सहायता खुद करता है। जो साधक अपने कर्तव्य मार्ग पर अटल व अडिग है, उसे दूसरों की सहायता मिले या नहीं, इसकी कोई चिंता नहीं रहती।
वह सबसे मित्रता रखता है, परन्तु उससे कौन-कौन मित्रता रखता है, उस ओर उसका ध्यान नहीं जाता। मित्रता रखने वालों से मित्रता रखना तो एक तरह का व्यापार है। साधक कभी विराधक नहीं होता और न ही व्यापारी होता है। वह वृक्ष, सरिता, बादल और सूर्य की तरह सबकी सहायता करता है, परंतु किसी से सहयोग आस नहीं रखता।
उन्होंने कहा मृत्यु के बाद धन संपदा तिजोरी में ही रह जाती है, जबकि पशु बाड़े तक, पत्नी घर के द्वार तक, स्वजन-परिजन श्मशान तक और देह चिता तक ही साथ रहती है। अंत में जीव को अपने कर्म के अनुसार अकेले ही परलोक यात्रा के लिए निकल पड़ता है। आत्मा अपने शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार सुख या दु:ख स्वयं भोगती है।