एस.एस.जैन संघ में विराजित साध्वी धर्मलता ने कहा कि लोच शब्द उलटा करने पर चलो बनता है। चलना ही मोक्ष है और लोच की प्रक्रिया आत्मा को कर्म से मुक्ति दिलाकर मोक्ष की ओर ले जाती है। लोच से मोह की पराजय होती है और ज्ञानतंतु सक्षम बनते हैं।
देह की सुदंरता मुंह से होती है और मुंह की सुदंरता बालों से होती है। बालों का त्याग करना ही लुंचन है। व्यावहारिक एवं आरोग्य की दृष्टि से भी लोच का महत्व है। लोच दिमाग के लिए रक्त संचार करता है।
देह का दमन, विषयों का वमन और कषायों का शमन कर्म निर्जरा के लिए शार्ट कट है। लोच महातप है। तीर्थंकर प्रभु ने भी पंचमुष्ठि लोच किया था। उनका अनुसरण करते हुए आज भी जैन संत आज भी राग का त्याग कर के लोच करते है।
साध्वी सुप्रतिभाश्री ने धन की तीन गति दान,भोग और नाश बताई है और कहा कि जंग खाकर नष्ट होने के अपेक्षा जीर्ण होकर नष्ट होना अच्छा है।