साहुकारपेट स्थित राजेन्द्र भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजयज ने कहा नदी का प्रवाह जिस तरह बिना किसी उपाय के नीचे की ओर बहता है, उसी प्रकार लक्ष्मी भी न्यायवंत मानव के पास स्वत: चली आती है। जिस प्रकार संबंधीजन प्रीति से, तालाब कमलों से, सेना वेगवान घोड़ों से, नृत्य सुरताल से, घोड़े वेग से, सभा विद्वानों से, मुनि शास्त्रों से, शिष्य विनय से और कुल पुत्रों से सुशोभित होता है, वैसे ही राजा न्याय से शोभायमान होता है।
इंद्रधनुष के समान चपल कांति वाले प्राण भले चले जाएं, चंचल संपदाएं, पानी के बुलबुले की तरह पिता, पुत्र, मित्र, स्त्री आदि के संबंध भी हमसे दूर हो जाएं, नदी के वेग के समान चंचल शरीर की जवानी एवं गुण भी चले जाएं, लेकिन हमारी कीर्ति फैलाने वाले नीति-न्याय का संग कभी छूटना नहीं चाहिए।
नीति कीर्ति रूपी स्त्री को रहने के लिए घर है, प्रसिद्धि पाने वाली है, पुण्य रूपी राजा की प्रिय रानी है, लक्ष्मी का संग करने वाली, सद्गति का मार्ग दिखाने वाली दीपज्योति समान है, कल्याण की सखी, प्रीति की परंपरा को प्रकट करने वाली और विश्वास का स्थान रूप है।
सज्जन पुरुष न्याय मार्ग पर चलते हुए पूजनीय लोगों की सेवा करता है, धार्मिक प्राणी को कभी ठगता नहीं, सत्य बोलता है, अनुचित आचरण का त्याग करने के साथ संबंधियों से प्रेम रखता है, संत संगति करता है, करने योग्य दैनिक कर्तव्यों का पालन करता है, प्रतापी पुरुषों से स्नेह पूर्वक व्यवहार करता है तथा दीन और अनाथ की मदद करता है।