माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में ठाणं सुत्र दूसरे अध्याय के 447वें श्लोक का विवेचन करते हुए कहा कि मनुष्य क्षेत्र के बीच में दो तरह के समुन्द्र है – लवण और कालोद| जैन भुगोल के आधार पर हम जहां रहते हैं, वह जम्बू द्वीप हैं| इसको चारों ओर वलयाकार में समुन्द्र है, उसका नाम है लवण समुंद्र| उसके बाद एक द्वीप आता है, उसका नाम है धातकी खण्ड| उसके चारों ओर एक समुद्र हैं कालोदधि (कलोद) समुन्द्र| उसके बाद पुष्कर द्वीप, फिर समुन्द्र, इस तरह असंख्य समुन्द्र और द्वप हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हम मनुष्य अढ़ाई द्वीप (पन्द्रह कर्म भूमि) – पांच भरत, पांच ऐरावत, पांच महाविदेह, इन पन्द्रह कर्म भूमियों में मनुष्य होते हैं, उन्हीं में से फिर साधु होते हैं, तीर्थकर होते हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि *सिद्ध चन्द्रों से भी ज्यादा निर्मल है, सूर्यों से भी ज्यादा प्रकाशकर हैं और सागर के समान श्रेष्ठ गंभीर हैं| ऐसे निर्मल, प्रकाशकर, गंभीर सिद्ध भगवान मुझे सिद्धी प्रदान करे|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमारी सृष्टि में सागर भी एक तत्व है| इतने समुन्द्र हमारी दृष्टि में भी आने वाले हैं, आते हैं और लवण एवं कालोद तो बहुत ही विशाल है| शास्त्रों में बताया गया है कि *मनुष्य को लांगना बड़ा मुश्किल है, क्योंकि उसमें पहाड़ से भी ज्यादा ऊँचता और सागर से भी ज्यादा गंभीरता होती हैं| ज्ञान की गंभीरता मनुष्य में हो सकती हैं, होती हैं और आचरणों की ऊँचता भी मनस्वी आदमी में हो सकती हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमारे जीवन में भी ज्ञान का गांभीर्य भी पैदा हो, रहे और आचार की, आचरण की ऊँचता भी रहे|
हमारा यह शरीर नौका के समान हैं, यह जीव, हमारी आत्मा नाविक है और यह संसार जहां जन्म मरण हो रहा हैं, वह समुन्द्र है| जिसे महर्षि लोग तर जाते हैं| यानी इस संसार रूपी समुन्द्र से तरने के लिए, शरीर रूपी नौका में स्थित हो, पार करना चाहिए|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमारा शरीर धर्म की साधना में लगे, आध्यात्मिक की साधना में लगे| साधना के लिए कहा गया है कि *तब तक तुम धर्म का समाचरण कर लो, जब तक तुम्हें बुढ़ापा पीड़ित न कर दे, शरीर मे व्याधि (बीमारी) पैदा न हो, जब तक इन्द्रिय शक्ति क्षीण न हो जाए, तब तक खूब धर्म की साधना कर लो|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि एक जागरूक करने का प्रयास किया गया है| *जब बुढ़ापा शरीर पर डेरा जमा लेता है, तब शरीर से चलना, उठना, बैठना मुश्किल हो जाता है, व्हील चेयर का सहारा लेना पड़ता है, गुरूओं के दर्शन, सेवा भी मुश्किल हो जाती हैं|* कानों से सुनने में कमी से प्रवचन सुनने में कठिनाई आ जाती हैं, आँखों की ज्योति में असर है, शरीर मे शक्ति भी कम हो गई, यह सारा बुढ़ापे का प्रभाव हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि *समय मात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिए|* मानो बुढ़ापा तो नहीं आया, शरीर मे व्याधि आ गई, बीमारी लग गई, तो भी धर्म-ध्यान में बाधा आ जाती है और इन्द्रिया काम अच्छा नहीं कर रही हैं, तो भी काम करने में बाधा हैं| इन तीनों का सारांश है कि *जब तक शरीर स्वस्थ हैं, सक्षम है, ठीक है, तब तक जो करना है, सो कर लो| बाद के भरोसे मत रहो, फिर क्या होगा? इसलिए अभी स्वास्थ्य ठीक है , धर्म का काम करना है, कर लेना चाहिए|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि परम् पूज्य आचार्य श्री तुलसी इसी चेन्नई में पधारे, दक्षिण की यात्रा की, तो जब तक बुढ़ापा नहीं आया तब तक दूर की यात्रा कर ली थी| दूसरों की सेवा करनी है तो भी स्वयं स्वस्थ रहेंगे तो कर सकेंगे| तो शास्त्रकार ने कहा कि *इस जन्म मरण रुपी संसार समुन्द्र से पार होने के लिए शरीर रूपी नौका से साधना, आराधना करनी चाहिए|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि अनन्त जन्म मरण हो गये हैं, आगे भी जितने है, उतने हैं| अभव्य जीव तो ऐसे है, वो तो हमेशा ही इस संसार में परिभ्रमण करते रहेंगे, वे कभी भी मोक्ष नहीं जा पायेंगे| मोक्ष में जायेगे, वे भव्य जीव ही जायेगे| अभव्य जीव हमेशा मिथ्यात्वी थे, है और हमेशा मिथ्यात्वी ही रहेंगे| *सौ तीर्थकर भी प्रयास करले मिथ्यात्वी को सम्यक्त्वी बनाने का, तो परम् पूज्य तीर्थकरों का प्रयास भी व्यर्थ जायेगा, अभव्य को कभी सम्यक्त्वी बनाया नहीं जा सकता|
जो भव्य जीव मिथ्यात्वी हैं, उन्हें तो सम्यक्त्वी बनाया जा सकता हैं| अभव्य जीव कभी कभी ऊपरी रूप से साधु बन जाए, तपस्या, साधना करके नव ग्रैवेयक देवलोक तक मृत्यु के बाद चले जाते हैं, परन्तु मोक्ष में वे कभी भी नही जा सकते|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि जो भव्य जीव है, जिनकी धर्म के प्रति रुचि है, ऐसे जीवों को प्रयास करना चाहिए कि हम इस संसार समुन्द्र को तरे, तरने का प्रयास करें| और कलाएं तो ठीक है,जितनी आदमी सीखे, सीख सकता हैं, पर हम यह संसार को तरने का, यह कला सीखने का प्रयास करें|* चौवदह गुणस्थान हैं, यह सिढ़ीयां हैं, इनको पार करने पर वह मोक्ष रूपी मंजिल प्राप्त हो सकती हैं| अनन्त जीव तो मिथ्यादृष्टि हैं, लेकिन उसका जो क्षयोपक्षम भाव हैं, गाय को गाय मानता है, घोड़े को घोडा मानता है और सच्चाई आदि को अच्छा मानता है| यह जो उसका गुण हैं, क्षयोपक्षम भाव हैं, उस अपेक्षा से पहला गुणस्थान मिथ्यादृष्टि गुणस्थान है|
विपरीत श्रद्धा गुण नहीं है, लेकिन जो उसका क्षयोपक्षम भाव हैं, वह उसका गुणस्थान है| पहले से सीधा चौथा गुणस्थान प्राप्त कर सकता हैं, आगे श्रावक बन सकता हैं, साधु बन सकता हैं| जितना जितना आश्रवों का निरोध होगा, उतना उतना गुणस्थान क्रमारोह होता है और चौवदहवें गुणस्थान में पांचों आश्रवों का निरोध हो चुका होता हैं, तब वह प्राप्त होता हैं| वह मात्र पांच रक्षवांचर का उच्चारण काल जितना होता हैं, फिर यह सिद्धी की मंजिल तैयार है|
इस संसार समुन्द्र को तरने के लिए यह यथाविधि गुणस्थान की सिढ़ीयों को पार करे, आरोहण करे, यह काम्य हैं|
श्रीमति निशा आंचलिया ने आठ एवं अन्य तपस्वीयों ने आचार्य प्रवर के श्रीमुख से तपस्या का प्रत्याख्यान किया|
*जिज्ञासा ज्ञानवृद्धि का मूलभूत आधार : साध्वी प्रमुखाश्री*
साध्वी प्रमुखश्री कनकप्रभा ने कहा कि *जिज्ञासा ज्ञानवृद्धि का मूलभूत आधार हैं|* जिस व्यक्ति में जिज्ञासा होती है, कुछ नया जानने की इच्छा होती है, वह व्यक्ति ज्ञानार्जन कर सकता है| आपने कहा दो प्रकार के व्यक्ति होते हैं – भावित आत्मा, अभावित आत्मा| जो भावित आत्मा यानी जो यथार्थ में विश्वास रखता है जैसा है उसे वैसा मानता है, तत्व को सही रूप से जानता है, वह समूह में रहे या अकेला, कहीं भी रहे, वह सुखी रह सकता हैं|
साध्वी प्रमीलाश्री ने कहा कि जब व्यक्ति के जीवन में परिग्रह का ग्रह लगता है, तो उसके चिंतन में वक्रता (टेडापन) आ जाता है, मन के अनुकूल कार्य नहीं होने पर दुखी हो जाता है, अतः व्यक्ति को *अपने जीवन में परिग्रह (पदार्थों) का सीमांकरण करना चाहिए, अहिंसा अणुव्रत को अपनाना चाहिए|
स्वरूप चन्द दाँती
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति
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