चेन्नई. मदुरान्तकम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीण ऋषि ने कहा कि सामान्यत: रिश्ते का तात्पर्य संबंधों से होता है। संबंधों के आधार प्राय: भावनात्मक होते हैं। रिश्तों की डोर से परिवार बनता है। जब कुछ परिवार जुड़ते हैं तो समाज बनता है। कुछ सामाजिक समुदाय आपस में जुड़ते हैं तो जातियां बनती हैं।
प्राचीन भारतीय कल्पना में पूरे विश्व को एक कुटुम्ब माना गया है। वसुधैव कुटुम्बकम का सूत्र इसी भावना का दर्पण है।
उन्होंने कहा आज रिश्तों की परिभाषा सिमटती जा रही है। कुछ स्वजनों, मित्रों तक आकर रिश्तों की सीमा समाप्त होने लगी है। ऐसे में यह देखने की जरूरत है कि हम रिश्ते को कैसे परिभाषित करते हैं। पारिवारिक जीवन तप और त्याग की बुनियाद पर खड़ा होता है।
गृहस्थी के निर्वाह का प्रयत्न किसी तपस्या से कम नहीं होता। सही मायने में परिवार को साथ लेकर चलने और साथ रहने से ही समाज और राष्ट्र को मजबूती मिल सकती है।
उपाध्याय ने कहा आजकल घरों में बुजुर्गों के प्रति एक उदासीनता का भाव और दूरी बढ रही है जबकि हमारे यहां बुजुर्ग परिवार का आधार रहे हैं। यह वास्तव में तेजी से बढ रही संवेदन शून्यता का ही परिणाम है कि घरों में बुजुर्गों की ऐसी स्थिति आ गई है। हमारे यहां तेजी से वृद्धाश्रमों की संख्या बढ रही है। हमारे देश में माता-पिता देवी-देवता के रूप में पूजे जाते रहे हैं।
आज की दुनिया में प्रतिशोध और प्रतिक्रिया के भाव के चलते थोड़े से स्वार्थ के लिए आदमी रिश्तों तक की मर्यादा भूल जाता है। वर्तमान शिक्षा ने व्यक्ति को शिक्षित तो कर दिया लेकिन संस्कारित नहीं किया। व्यक्ति सभ्य तो बन गया लेकिन संवेदनशील नहीं बन पाया।
जब संवेदना नहीं रहती तो व्यक्ति केवल अपने सुख और सुविधा की परवाह करता है। जीवन को खुशियों से लबरेज करने का मतलब परिजनों के साथ ज्यादा समय बिताना और उनको प्रसन्न रखना है। यदि कोई चीज रिश्तों को मजबूत बनाती है तो वह है सच्चाई और ईमानदारी।