किलपाॅक में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा हमें मृत्यु का भय कभी नहीं होना चाहिए। यह मृत्यु आत्मा की नहीं है, केवल शरीर की है। जिनशासन को आत्मा से भावित बनाना है। लघुकर्मी आत्मा का जिनशासन में प्रवेश हो जाता है।
उन्होंने कहा हमें अपनी आत्मा का निरीक्षण करने की आवश्यकता है। यदि आत्मा के साथ स्पर्श नहीं है तो भाव के साथ जिनशासन नहीं मिलेगा। जिनवाणी श्रवण करने का भाग्य आपको मिला है। उपाश्रय में एक कदम भी बढ़ाना पुण्य कर्म से संभव होता है।
उन्होंने कहा जिनको जिन प्रवचन का श्रवण मिला है उनके लिए नरक और तीर्यंच गति के दरवाजे बंद हो जाते हैं। मनुष्य जन्म मिलेगा तो कुशासन नहीं मिलेगा। संसार के सुख त्याग करने योग्य कहा गया है, क्योंकि ये दुख का कारण है। यह हम नहीं, शास्त्रकार महापुरुष कहते हैं। उन्होंने कहा हमने प्रकृति का जितना उल्लंघन किया है उसका नतीजा हमें ही भुगतना पड़ेगा।
संसार में कुछ पाने की भावना है तो वह मोक्ष है जो पाने योग्य है। जिसके हृदय में यह नहीं है वह जिनशासन के बाहर है, यह वास्तविकता है। जन्म व मृत्यु संसार का स्वभाव है इसलिए शोक कभी नहीं करना चाहिए, यदि यह भाव है तो आप जिनशासन में है।
उन्होंने कहा आप भी इस संसार में मेहमान हो। यहां शक्ति, आदर, सम्मान चाहिए तो मेहमान बनकर रहो, मालिक बनकर नहीं।
हमारे अंदर चिंता, उद्वेग, तृष्णा, शोक, निंदा, उत्सुकता जैसे दुर्गुण नहीं होना चाहिए। गम्भीरता, उदारता आदि गुण होना चाहिए। परमात्मा की भक्ति, वैयावच्च, अनुष्ठान, तीर्थयात्रा, शुभ कार्य करने से आनंद की अनुभूति होती है।
इन परिवर्तनों के साथ ही आप सुनिश्चित कर पाएंगे कि जिनशासन आपके हृदय में है। जिनशासन में आचार्य को राजा, उपाध्याय को महामंत्री, मुनि भगवंतो को कोतवाल, श्रमणोपासकों को सैनिक, श्राविका को गृहलक्ष्मी माना गया है। सैनिकों का कार्य शासन की रक्षा करना होता है। श्राविका में अतिथि सम्मान, वैयावच्च, अनुकंपा के गुण होते हैं। उन्होंने कहा सिद्धर्षि गणि ने अपने ग्रंथ में जीवन की हर स्थिति, परिस्थिति का वर्णन किया है।