कन्याकुमारी (तमिलनाडु): हिन्दुस्तान के पश्चिम, उत्तर, पूर्वोत्तर, पूर्व की धरा को अपने ज्योतिचरण से पावन बनाते हुए आचार्यश्री महाश्रमणजी अपनी अहिंसा यात्रा के साथ दक्षिणायन हुए थे तभी लाखों लोगों के मन में एक ही अभिलाषा, लालसा और और आकांक्षा थी कि ज्योतिचरण हिन्दुस्तान के दक्षिण भाग अंतिम छोर कन्याकुमारी में भी पड़ें।
श्रद्धालुओं की भावना और मानवता के कल्याण को समर्पित महाश्रमिक, अखण्ड परिव्राजक आचार्यश्री महाश्रमणजी ने मौसम की प्रतिकूलताओं, भाषाई कठिनता आदि अनेकानेक विपरित परिस्थतियों को अपने दृढ़ संकल्प से परास्त करते हुए निर्धारित दिन से एक दिन पूर्व ही हिन्दुस्तान के अंतिम कन्याकुमारी में मंगल प्रवेश किया।
मंगल प्रवेश के साथ ही हिन्दुस्तान का यह अंतिम छोर भी ज्योतिचरण का स्पर्श पाकर ज्योतित हो उठा। साथ ही तेरापंथ के इतिहास में एक नए स्वर्णिम अध्याय जुड़ गया। इस मंगल प्रवेश का साक्षी स्वयं वह आसमान का सूर्य भी रहा जो अध्यात्म जगत के महासूर्य का अभिवादन करने के पश्चात ही अस्ताचलगामी बना।
तीन समुद्रों की संगम स्थली कन्याकुमारी में ज्ञान के महासागर आचार्यश्री महाश्रमणजी इस धरा पर दो दिनों तक जो ज्ञानगंगा की अविरल धारा प्रवाहित करेंगे वह जन-जन का कल्याण करने वाली साबित होगी। आचार्यश्री अपने सान्ध्यकालीन विहार के दौरान कोत्तरम से लगभग पांच किलोमीटर का विहार कन्याकुमारी में मंगल प्रवेश कर प्रवास हेतु स्टेला मरिस ट्रेनिंग सेंटर में पधारे।
इसके पूर्व कन्याकुमारी से भाजपा के सांसद व भारत सरकार में वित्त एवं जहाजरानी राज्यमंत्री श्री पोन राधाकृष्णन ने भी आचार्यश्री का अपने लोकसभा क्षेत्र में स्वागत कर आचार्यश्री से मंगल मार्गदर्शन प्राप्त किया।
इसके पूर्व रविवार को आचार्यश्री अपनी अहिंसा यात्रा का कुशल नेतृत्व करते हुए नागरकोईल के कत्तूर स्थित डी.वी.डी. स्कूल से मंगल प्रस्थान किया। जैसे-जैसे आचार्यश्री गंतव्य के निकट होते जा रहे थे, सूर्य की प्रखरता भी बढ़ती जा रही थी, किन्तु मानवता के कल्याण के लिए गतिमान आचार्यश्री निरंतर गतिमान थे। लगभग बारह किलोमीटर का विहार कर आचार्यश्री कोत्तरम स्थित गवर्नमेंट हायर सेकेण्ड्री स्कूल परिसर में पधारे।
विद्यालय परिसर में आयोजित मंगल प्रवचन कार्यक्रम में उपस्थित श्रद्धालुओं को आचार्यश्री ने भगवान महावीर व मुनि मेघकुमार के बीच हुए वार्तालाप के घटना प्रसंग को सुनाते हुए कहा कि आदमी को अपने भीतर दया और अनुकम्पा के भाव को पुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए।
जिस आदमी के भीतर दया और अनुकम्पा की भावना पुष्ट हो जाती है, वह कितनी-कितनी हिंसा से बच सकता है। दया-अनुकंपा की चेतना का इतना प्रभाव हो सकता है कि आदमी का इहलोक के साथ परलोक भी अच्छा बन सकता है। जहां तक संभव हो आदमी को अहिंसा के मार्ग पर चलने का प्रयास करना चाहिए, अनावश्यक हिंसा से बचने का प्रयास करना चाहिए।