चेन्नई. मंगलवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल सेंटर, पुरुषावाक्कम, चेन्नई में चातुर्मासार्थ विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि महाराज एवं तीर्थेशऋषि महाराज के प्रवचन का कार्यक्रम आयोजित किया गया। उपाध्याय प्रवर ने जैनोलोजी प्रैक्टिकल लाइफ में कहा कि हमारी आत्मा का एक मूल स्वरुप होता है और एक ग्रहण किया हुआ है। जो बाहरी स्वरूप है, यह हमारी आत्मा की मूल प्रकृति नहीं है। इसी के कारण जाने-अनजाने में हमारे लिए समस्याएं खड़ी होती रहती है, इसी से किसी गति का बंध और सुख-दु:ख होते हैं। इन्हें अघाती कर्म कहा गया है जो जीवन में समस्याएं खड़ी करते हैं, लेकिन मूल आत्मा के स्वरूप को प्रभावित नहीं कर सकते।
उपाध्याय प्रवर ने कहा कि यदि अच्छा करते हुए भी हम अशुभ नामकर्म का बंध कर लेते हैं। सेवा करते हुए भी मन में नकारात्मक भाव आ जाए तो पाप कर्म का बंध हो जाता है। मन, क्रिया अच्छी होती है लेकिन जुबान में हम खराबी करने से भी पापकर्म बंध कर लेते हैं। उसका परिणाम हमें भी अच्छे शब्द या धन्यवाद अपने जीवन में नहीं मिल पाता। मन, क्रिया, वचन तीनों में सामंजस्य रखें, तो अशुभ नामकर्म का बंध नहीं होगा और एक भी चीज अलग हो गई तो उसका सारा परिणाम ही विपरीत हो जाएगा। जो क्रिया कर रहे हैं उसे सोचने, बोलने और क्रिया करने में अपना ध्यान एकाग्रचित रखें। छोटी-छोटी बातों में यदि इस सूत्र का ध्यान नहीं रखने से अपने घर-परिवारों में झगड़े शुरू हो जाते हैं।
आचारांग सूत्र में बताया गया है कि अन्दर की मानसिकता को जीतने के लिए इसके मूल बीज मोह को जानना जरूरी है। किसी भी व्यक्ति या वस्तु के प्रति हम सोचते हैं कि यह मेरा है, यह मेरे लिए है कि यह भावना ही इस मोह की मानसिकता का मूल है। जैसे-जैसे यह चलती रहती है आपके लिए समस्याएं खड़ी होती रहती है।
इस संसार में जीव स्वयं के लिए जीता है, दूसरों के लिए कोई नहीं जीता, जो भी करता है स्वयं के लिए ही करता है। परमात्मा कहते हैं कि जो जीव इस स्वभाव को छोडक़र जीता है, उसी समय से उसकी सौम्या और ओरा धर्म की बन जाती है। जीवन में मोह का राज हो तो स्वयं के लिए जीता है और धर्म का राज हो तो दूसरों की भलाई के लिए स्वयं के बलिदान से भी पीछे नहीं हटता। मोह से ज्यादा शक्ति श्रद्धा में होती है। जिनके जीवन में धर्म है वहां श्रद्धा की चलती है। मोह जब श्रद्धा का रूप ले ले तो आपका जीवन धर्म की ओर मुड़ जाएगा।
इन्द्रभूति गौतम ने भगवान से पूछा कि बिना कर्म का अवसर मिले ही जीव का आयुष्य पूर्ण हो जाए तो उसकी गति किस आधार पर होगी। परमात्मा ने उसकी एक-एक गति के सोलह-सोलह कारण बताए है। वह जीव उसकी माता की पाप-पुण्य की भावनाओं द्वारा उत्पन्न कर्मों का फल भोगता है और उनसे ही प्रेरित होता है। संतान ही अपनी मां के सपनों को साकार करने का सामथ्र्य रखती है। यह कर्म सिद््धांतों के विपरीत है। कर्म के सिद्धांत को गर्भावस्था के समय चुनौती दी जा सकती है। उस गर्भस्थ जीव के कर्मों को तोडक़र उसे भी धर्म मय बनाया जा सकता है। प्रत्येक मां को इसका आभास उसके वाइब्रेशन और स्वप्नों के द्वारा होता है, आवश्यकता है उसे समझने और बदलने। उस संवेदनशील समय में यदि उसे न बदला जाए तो बाद में बदलना मुश्किल है। भगवती सूत्र में बताया गया है कि मां के शरीर और औरा से वह संचालित हो उसके जैसा ही बन जाता है।
उपाध्याय प्रवर ने कहा कि आपका जन्म इतिहास को पढऩे के लिए नहीं बल्कि इतिहास बनने के लिए हुआ है। पारंपरिक मान्यताओं से हटकर अपने धर्म को जानें, पहचानें और आने वाली पीढिय़ों को इससे रूबरू कराएं। हम आधुनिक परिवर्तनों को शीघ्र स्वीकार कर लेते हैं लेकिन नए धार्मिक प्रयोगों की ओर भी ध्यान देना जरूरी है। यह संसार में पाप सिखाता है लेकिन जिनशासन कल्याण का मार्ग बताता है। परमात्मा का समवशरण है ही इसलिए कि कोई भी, किसी भी रास्ते ज्ञान, दर्शन, चरित्र कैसे भी परमात्मा तक पहुंचे उसका स्वागत करता है, शरण देता है।
तीर्थेशऋषि महाराज ने कहा कि अपने उपकारी को सदैव याद रखें। जिन्हें हम याद रखेंगे उनका बार-बार हमारे जीवन में आगमन होगा और जिन्हें हम भूल जाते हैं वे हमारे जीवन से निकल जाते हैं, उनका बार-बार आगमन नहीं होता। अपने अपने उपकारियों को याद रखेंगे तो अपने जीवन में उपकारी आते रहते हैं। जो हमें दु:खों से बचाता है, कष्ट के समय सम्बल देता है उन्हें कभी न भूलें।
सुभाष कांठेड़-३२वें मासखमण के 20 उपवास, सुरेश कोठारी 20 उपवास और किरणबाई कोठारी के छठे मासखमण 20 उपवास के पच्चखान हुए। उपस्थित सभी जनों ने तपस्वीयों की अनुमोदना की। मंगलपाठ से कार्यक्रम का समापन हुआ। 28 से 28 सितंबर को 72 घंटे का अर्हम गर्भ संस्कार शिविर, 30 सितंबर को घर-घर में नवकार कलश स्थापना का कार्यक्रम संपन्न होगा।