आज विजयनगर स्थानक भवन में विराजित जैन सिद्धान्ताचार्य साध्वीश्री प्रतिभाश्री जी ने पर्वाधिराज पर्युषण पर्व के दूसरे दिन संयननिष्ठ कैसे बने पर विवेचन फरमाते हुए कहा कि मनुष्य की शोभा सदाचार से होती है।मर्यादा पूर्वक आचरण से ही सदाचार आता है, आजकल के सभी बच्चे अपने खान पान, रहन सहन व पहनावे को भूलता जा रहा है व पाश्चात्य संस्कृति एवं भोग विलास तथा नग्नता की ओर आकर्षित होता जा रहा है। जो सिर्फ जैन समाज के लिए ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारतवर्ष के जन जीवन के लिए अत्यन्त भयावह व अशुभ है।
साध्वीश्री ने सभी से कहा कि अपने बच्चों को सादगी पूर्ण वस्त्र दें ताकि उनमें शील, सदाचार युक्त आचरण के गुण जागृत हो। जिससे हम अपनी संस्कृति की रक्षा कर सके। हमारी लड़कियां हीरे के समान होती है। हीरे को तिजोरी में सार संभालकर रखा जाता है। राजमती राजुल का उदाहरण देते हुए समझाया कि राजमति ने सिंहनी की भाँति रथनेमि को संयम जीवन मे गिरते हुए आचरण, कामी भोगी इन्द्रियों के आचरण को फिर से संयम पथ पर ला दिया था।
साध्वीश्री प्रेक्षाश्रीजी ने दान की महत्वता पर समझाते हुए बताया कि व्यक्ति को खुलेमन से एज बार दान की घोषणा कर देने पर फिर से पश्चाताप नहीं करना चाहिए। खुले मन से भावना भाकर दान देना चाहिए जैसे शालीभद्र ने पूर्ण भावना से दान दिया। गुप्त दान देने से धन में वृद्धि होती है।साध्वीश्री प्रेरनाश्री ने संयम पर गीतिका से प्रस्तुति दी। बहु मंडल व महिला मंडल ने भी पर्युषण पर गीतिका से भाव प्रकट किये।