चेन्नई. ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द दो शब्दों के मिलन से बना है। ब्रह्म+ चर्य ब्रह्मचर्य। ब्रह्म का अर्थ है आत्मा और चर्य का अर्थ है- रमण करना अर्थात जब आप आत्म भाव में रमण करते हैं तो वह वास्तविक ब्रह्मचय होता है। यह विचार ओजस्वी प्रवचनकार डा. वरुण मुनि महाराज ने जैन भवन, साहुकारपेट में चातुर्मासिक प्रवचन श्रृंखला को बढ़ाते हुए व्यक्त किए। उन्होंने उपस्थित श्रद्धालु भाई-बहनों को संबोधित करते हुए कहा जैसे इस संसार में ‘दान’ में सर्वश्रेष्ठ अभयदान है, सत्य वचनों में सर्वश्रेष्ठ ‘सरल’ व दोष रहित वचन है, ऐसे ही सभी तपों में महान यदि कोई तप है तो युग प्रधान आचार्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि- वह है- ब्रह्मचर्य तप।
भगवान महावीर का जब परिनिर्वाण हो रहा था तो किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया भंते! कलयुग में भगवान के दर्शन किस भांति होंगे? प्रभु महावीर ने फरमाया-हे शिष्य ! जो मन, वचन, कर्म से अखण्ड बाल ब्रह्मचारी आत्मा है उनके दर्शन कलयुग में साक्षात भगवान के दर्शन के तुल्य होंगे। संसार में सबसे बढक़र कठोर कोई साधना है तो वह ‘ब्रह्मचर्य’ महाव्रत की है।
प्राचीन जैन ग्रंथों में प्रसंग आता है- जिनदास भावक ने जब विनती की श्री विमल केवली भगवान से कि मैं आपके धर्म संघ के 84 हजार साधुओं को एक समय का भोजन करवाना चाहता हूं तो उन्होंने फरमाया हे श्रावक ! यह संभव नहीं क्योंकि हम तो भिक्षा जीवी हैं, सभी घरों से थोड़ा थोड़ा भोजन ग्रहण करते हैं। यह सुन जब वह श्रद्धालु उदास हुआ तो श्री विमल केवली भगवान ने कहा आप अपनी नगरी में रहने विजय कुमार-विजया कुमारी नामक दंपति को भोजन करवा दो आपको उतना ही पुण्य मिलेगा, जितना 84 हजार संतों को भिक्षा देने से होता है।
आश्चर्य हुआ उस श्रद्धालु को कि – ऐसी क्या विशेषता है उस दंपति के जीवन में? श्री विमल केवली ने तब रहस्य से पर्दा उठाते हुए बतलाया- दुनिया की दृष्टि से ‘भले ही वे पति-पत्नी हैं परंतु उनका तन-मन पूर्ण रूपेण शुद्ध है। शादी के बाद भी वे अपने ब्रह्मचर्य व्रत का पूर्ण शुद्धता से पालन कर रहे हैं। महाभारत में भीष्म पितामह का इतिहास भी बहुत प्रसिद्ध है। ब्रह्मचर्य व्रत की प्रतिज्ञा के कारण ‘भीष्म’ युवा अवस्था में ही ‘पितामह’ (दादा) जैसे पद से पूजनीय बनें।