आयंबिल ओली की तप–आराधना आज से
चेन्नई. सोमवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का प्रवचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने आचारांग सूत्र में बताया कि प्रमाद ही सबसे बड़ा पाप है। एक पल की भूल से सालों की मेहनत बेकार हो जाती है। प्रमादी व्यक्ति हर समय भयग्रस्त रहता है। भरत चक्रवर्ती द्वारा पूछने पर ऋषभदेव परमात्मा कहते हैं कि इस धर्मसभा के दरवाजे पर जो मरीची है वह भावी तीर्थंकर बनेगा जिसने साधुचर्या छोड़ दी, संयम छोड़ दिया वह वासुदेव, तीर्थंकर और चक्रवर्ती भी बनेगा।
ठाणं सूत्र में चार प्रकार के व्यक्ति कहे गए हैं– एक जो साधु का वेश छोड़ देता है लेकिन धर्म नहीं छोड़ता। दूसरा जो धर्म छोड़ देता है लेकिन साधु का वेश नहीं छोड़ता और तीसरा दोनों को छोड़ देता है और चौथा जो इन दोनों को नहीं छोड़ता। इन चारों में सबसे सर्वश्रेष्ठ वह है जो किसी को भी नहीं छोड़ता और सबसे निकृष्ट और खतरनाक वह है जो साधु वेश नहीं छोड़ता लेकिन धर्म और संघ को छोड़ देता है। ऐसा व्यक्ति कितने ही लोगों की आस्था को नुकसान पहुंचाता है।
मरीची के बारे में सुनकर लोगों के मन में अहोभाव आता है और कई लोग मरीची से प्रेरणा ग्रहण करते हैं कि बाहरी रूप में परमात्मा से दूर रहकर भी यह अन्तर से परमात्मा के निकट है। मरीची अपनी प्रशंसा सुनता है और वह प्रमाद में आ जाता है। पूरी धर्मसभा तो वंदना करती है लेकिन वह वंदना भी नहीं करता है और अपने जीवन में स्वच्छंदता के कारण नारकी का बंध करता है। एक वाक्य की थोड़ी–सी प्रसिद्धि मिली कि अहंकार आ जाता है। सदैव अपनी प्रशंसा से बचें, निन्दा से नहीं। यह कठिन है कि अपनी प्रशंसा सुनकर व्यक्ति नशे में न जाए। साधना के मार्ग पर चलना है तो अपनी प्रशंसा सुनने से बचें, नहीं तो साधना सुरक्षित नहीं रह पाएगी। सत्कार और सम्मान ऐसा खतरनाक दुश्मन है जो प्रिय भी लगता है। संसार के सभी उपसर्ग से बचने वाला व्यक्ति भी सत्कार के मीठे रोग के चक्कर में खाई में जा गिरता है। निन्दा से बचने का प्रयास न करें, बुरा से बचने का प्रशंसा से बचने का प्रयास करें। हमारे मन में भी ऐसा मरीची बैठा हुआ है। यह प्रशंसा सुनते ही नशे में जाता ही जाता है। जो प्रशंसा से बच नहीं पाए वो अपनी साधना को सुरक्षित नहीं रख पाए। इसे निरंतर अपने मन में बैठाए रखें।
परमात्मा का साइंस कहता है कि जो रोग आया है वह जाएगा कि जरूरत है तो अपनी आत्मा के अनन्त सामथ्र्य को जाग्रत करने की। जब आपके ध्यान, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग और तप से सारे कर्म जल सकते हैं, अनादिकाल का मिथ्यात्व जा सकता है, तो बीमारियां भी जा सकती है। इस तन का मालिक आत्मा है, जो इसे बदल सकती है। मेंटलिटी चेंज हो जाए तो रियलिटी भी चेंज हो जाएगी।
भरत चक्रवर्ती के पूछने पर परमात्मा कहते हैं कि वह भी मोक्ष में जाएगा तो उपस्थित जनसमूह में भावना आती है कि सर्व–संपन्न होकर भी भरत वितरागी बनेगा और मोक्ष में जाएगा लेकिन वहां एक व्यक्ति के मन में शंका और ईष्र्या होती है कि इसके तो बेटा और पोता भी मोक्ष में जाएंगे तो और जो उपस्थित जनसमूह है वह तो क्या व्यर्थ ही है और इस प्रकार सभा में बातें होने लगती है और भरत तक पहुंचती है। भरत उस शंकाग्रस्त व्यक्ति को बुलाकर हाथ में तेल–पात्र देकर उसे अयोध्या नगरी की परिक्रमा करने के लिए कहता है कि एक भी बंूद नहीं गिरे और परिक्रमा कर आए तो उसे राजा बना देगा नहीं तो मृत्युदंड देगा। वह व्यक्ति पूरी नगरी के परिक्रमा करके आता है और उससे पूछते हैं कि रास्ते में क्या देखा। कहता है कि मृत्यु के अलावा कुछ नहीं देखा, हर पल उसे देखा और अपने पास महसूस किया।
हम सबके पास ऐसा ही तेल का कटोरा है और इस संसार की आयुष्यकर्म की अयोध्या में घूमना है, जहां पर उसकी बंूद गिरी, वहीं हमारा सिर कट जाता है लेकिन विडम्बना यह है कि हमें यह कटा हुआ नहीं दिखता है। भरत चक्रवर्ती कहता है कि मैं मृत्यु को कभी नहीं भूलता, मेरे सिर पर तो हर पल तलवार लटक रही है।
आचारांग सूत्र कहता है कि जिसने मरण को देख लिया वह शांति को देख लेगा और जिसने शांति को देख लिया उसने मरण को देख लिया। हमारा हर पल आयुष्य कम हो रहा है, पर नजर नहीं आ रहा है। जीव धीरे–धीरे हर पल मरता है, जल की तरंगों के समान एक–एक पल खत्म हो रहा है। परमात्मा कहते हैं कि प्रमाद के खेल जीवन में चलते ही रहते हैं लेकिन जिसने मरण को देखा और महसूस कर लिया वह कभी प्रमादी नहीं हो सकता, वह कभी गुस्सा, आलस, झगड़ा, परिग्रह नहीं कर पाता। हर समय परमात्मा का स्मरण रखें कि जो सांस छोड़ी है वह आने की गारंटी नहीं है। यह शरीर हर पल जीर्णशीर्ण हो रहा है। इससे संभालने के बजाए अपनी आत्मा आत्मा को संभाल लें तो सारे विकार समाप्त हो जाएंगे। जिसे यह मरण दिखा उसे ही आत्मा की अमरता नजर आएगी। कितना ही संभालें शरीर को संभाला नहीं जा सकता, जिसे संभाला जा सकता है उस आत्मा को संभालें। आचारांग सूत्र का यह गहरा सूत्र हैकि प्रमाद छोड़ दें, और मृत्यु को जागरुकता से देखें तो ही भगवान नजर आएंगे।
परमात्मा महावीर ने पहले के 23 तीर्थंकरों की परम्परा को भी साइड में रखकर अपने निर्वाण कल्याणक की बेला में अपनी अंतिम देशना दी, वे पहले के तीर्थंकरों के समान एकांतवासी बनकर तप नहीं किया बल्कि अपनी अंतिम श्वास तक भक्तों पर वरदान बरसाते रहे। उन्होंने अंतिम समय में जो शब्द कहे उन्हें सुनने के लिए उस समय 18 राजाओं सहित देवगण, पशु–पक्षी, और कितने ही भवि जीवों ने लगातार सोलह प्रहर तक परमात्मा के समवशरण में रहे। परमात्मा की ऐसी वाणी उत्तराध्ययन सूत्र की आराधना में सम्मिलित हों और उन वरदानों को ग्रहण कर अपना जीवन बनाएं।
तीर्थेशऋषि महाराज ने कहा कि जो अनन्त परमात्मा को प्राप्त करने के लिए तुच्छ संसार का त्याग करने वाले संत–महात्मा त्यागी कहलाते हैं जबकि सांसारिक व्यक्ति तुच्छ संसार के लिए अनन्त और सर्वसामथ्र्यवान परमात्मा को छोड़ते हैं लेकिन वे अधिक का त्याग करके भी त्यागी नहीं कहलाते हैं। जिसने संयम, तप और धर्मरूपी धन प्राप्त करने के लिए इस संसार का त्याग किया, वही बुद्धिमान और त्यागी कहलाते हैं। आयंबिल ओली की आराधना के अवसर पर सभी को अपनी जीभ के स्वाद का त्याग कर आराधना करें और अपने अन्तर की शक्ति को प्रकट करें। जिस व्यक्ति को आत्मा के रस में आनन्द आ गया उसके लिए बाहरी संसार के सभी सुख और रस नीरस लगते हैं। तप–आराधना के इस अवसर पर अपनी आत्मा की शक्ति को जाग्रत करें। इस शरीर की व्याधियों का कारण आपकी रसना है, इसलिए परमात्मा ने आयंबिल ओली तप का विधान बताया है। इस आराधना के साथ स्वयं को परमात्मा के वचनों को ग्रहण करने के योग्य बनाएं और अपना लक्ष्य प्राप्त करें।
आज से आयंबिल ओली की तप–आराधना शुरू होगी। 18 अक्टूबर को प्रात: 8 बजे सी.यू.शाह भवन, पुरुषावाक्कम से उत्तराध्ययन का भव्य वरघोड़ा निकाला जाएगा। 19 अक्टूबर से उत्तराध्ययन सूत्र का वाचन प्रात: 8 से 10 बजे तक होगा।