माधावरम् स्थित जैन तेरापंथ नगर के महाश्रमण समवसरण में त्रिदिवसीय*प्रकृति के साथ सामंजस्य और 21वीं सदी में जैन विजन*सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर जनमेदनी को संबोधित करते हुए आचार्य श्री महाश्रमण ने कहा कि हमारी दुनिया में अनन्त अनन्त प्राणी हैं| प्राचीन मान्यताओं के अनुसार 84 लाख जीवा योनीयों में से मनुष्य भी एक प्राणी हैं| सब जीवों में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी हैं, क्योंकि जैन सिद्धांतों, ग्रन्थों के अनुसार मनुष्य ही केवलज्ञान प्राप्त कर, भगवत्ता, सिद्धतत्वता, मुक्ति को प्राप्त कर सकता हैं|*
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमारी दृश्य दुनिया, जिसमें पेड़- पौधे, पशु इत्यादि हैं, उसमें मनुष्य के पास एक अच्छा दिमाग हैं, जिसके आधार पर वह कई तरह के कार्य कर लेता हैं, उसने कितने ही आविष्कार किये हैं, नये-नये यंत्रों का निर्माण किया है, नई-नई ज्ञान की बाते सामने आई हैं| इस दिमाग, मस्तिष्कीय क्षमता के आधार पर संभवतः मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी का दर्जा देना असंगत नहीं लगता|* यह मनुष्य का एक पहलू हैं|
आचार्य श्री ने मनुष्य के दूसरे पहलू की चर्चा करते हुए कहा कि मनुष्य के पास शक्ति और दिमाग के आधार पर, जो विनाश लीला वह दिखा सकता हैं,* संभवतः वह पशु के वश की बात ही नहीं, इस आधार पर हमारी दिखती दुनिया का मनुष्य सबसे अधम प्राणी हो सकता हैं,* उसके जितना अधम कोई नहीं होता|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि आदमी के भीतर अहिंसा के संस्कार भी है और हिंसा के भी, अच्छाई का बीज भी है और बुराई का भी, सत् तत्व भी है और असत् संस्कार तत्व भी हैं| अपेक्षा है, आदमी के भीतर से अहिंसा, अच्छाई और सत् तत्व उजागर हो, उभरे*और हिंसा, बुराई एवं असत् के संस्कार क्षीण हो, तो आदमी की सर्वश्रेष्ठता का अंश या सम्पूर्णता, बहुलांश या सर्वांश में उजागर हो सकती हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमारे भीतर चेतना (आत्मा) नाम का तत्व हैं| आत्मा के साथ प्रकृति जुड़ी हुई हैं| जैन दर्शन के अनुसार आठ कर्म बताये गए हैं| कर्म भी प्रकृति हैं, जो आत्मा के साथ जुड़ी हुई हैं| इस*कर्म रूपी प्रकृति से मुक्त होकर, आत्मा परम् तत्व, परमात्व तत्व की प्राप्ति हो सकती हैं|*
जीवन में अहिंसा और संयम का विवेक करें अंगीकार*
आचार्य श्री ने कहा कि जैन दर्शन के अनुसार अनन्त जीवों में स्थावरकाय, पृथ्वी, पानी, अग्नि, हवा, वनस्पतिकाय भी जीव हैं| हम अपने जीवन में अहिंसा और संयम का विवेक अंगीकार करे| साधु प्रकृति के साथ सद् भावना रखता है, वह दूब के उपर पैर नहीं रखता, चलता नहीं, पेड़ या पत्तों को हाथ नहीं लगाते, छुते नहीं, क्योंकि उससे उनकों कष्ट हो सकता हैं, हिंसा हो सकती हैं|
अनुकम्पा,अहिंसा, विवेक, संयम की चेतना रहे जाग्रत*
आचार्य श्री ने आगे कहा कि गृहस्थ अनावश्यक पृथ्वी का खनन नहीं करें, पानी का अपव्यय नहीं करें, बिजली का उपयोग नहीं करें| अनावश्यक पेड़ पौधों को नहीं कांटे, कर्तन नहीं करें| तो प्रकृति के साथ सद् भावना रखने के लिए अहिंसा की चेतना के साथ में संयम का अभ्यास भी होना चाहिए| तो हम प्रकृति के साथ न्यायपूर्ण, अच्छा व्यवहार कर सकते हैं| अनुकम्पा,अहिंसा, विवेक, संयम की चेतना हमारे में जाग्रत रहे, सक्रिय रहे, तो प्रकृति के साथ एक अच्छी सद् भावना की बात हो सकती हैं|*
आचार्य श्री ने कहा कि हम अभी अहिंसा यात्रा में सद् भावना, नैतिकता, नशामुक्ति रूपी सूत्रतय के द्वारा गांवों में, नगरों में, महानगरों में प्रचार कर रहे हैं, लोगों को प्रतिज्ञाएं भी करवा रहे हैं, ताकी संस्कार पृष्ट हो और जनता अपनी आत्मा की दिशा में आगे बढ़ सके| हमारी दुनिया भी अच्छी रह सके|
आत्मा की प्रकृति, स्वभाव हैं, समता का भाव में रहना*
आचार्य श्री ने आगे कहा कि आज का यह सम्मेलन प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ हैं| हमारी आत्मा की प्रकृति, स्वभाव हैं, समता का भाव में रहना, ज्ञान, दर्शन में रहना|*ज्ञान, दर्शन चेतना का व्यापार, शुद्ध उपयोग हैं| जहां कोई राग द्वेष नहीं, वहां उसके निकट या उसमें रह सके तो हम अपनी प्रकृति में रह सकते हैं|
जहां से भी सच्ची, अच्छी बात मिले उसे करे ग्रहण*
आचार्य श्री ने आगे कहा कि जहां से भी सच्ची बात, अच्छी बात मिले, उसका सम्मान होना चाहिए, यथासंभव ग्रहण करना चाहिए, भले भारतीय संस्कृति हो या पश्चिमी संस्कृति|*जैसे हीरा कीचड़ में पड़ा होता हैं, तो भी आदमी उठा लेता हैं| किसी गृहस्थ के पास अच्छी बात मिले, तो संत को भी अच्छी बात लेने का समुच्चित प्रयास करना चाहिए| जहां सच्चाईयों को, अच्छाईयों को अनाग्रह भाव से रुझान होता हैं, तो सच्चाईयां, अच्छाईयां हमारे पास आ सकेगी| और जहां दुराग्रह होगा, वहां सच्चाई, अच्छाई हमारे पास नहीं आयेगी|
अनेकांतवाद से सुलझ सकती हैं दार्शनिक गुत्थियां*
आचार्य श्री ने कहा कि अनेकांतवाद के आधार पर ध्यान दिया जाए, तो विभिन्न दर्शन, दार्शनिक गुत्थियों को भी सुलझाने में बड़ा सहयोग प्राप्त हो सकता हैं|* आदमी आदमी के बीच की वैचारिक दूरीयां भी अनेकांत की मध्यस्था से कम या खत्म की जा सकती हैं और नेकेट्य का स्थापन किया जा सकता हैं| तो अनेकांत से वैचारिक अहिंसा हो सकती हैं|
पैसे का न हो दुरूपयोग*
आचार्य श्री ने आगे कहा कि परिग्रह के साथ में अनासक्ति हो जाए तो पदार्थों के संदर्भ में भी अहिंसा की, अध्यात्म की बात हो सकती हैं| गृहस्थ को पैसा भी चाहिए| पैसों में दो नम्बर का, कच्चा खाता, भष्टाचार, चल कपट न हो, उससे दूर रहें|*साथ में नैतिकता हो, आर्थिक शुचिता हो, शुद्धता हो, साधन शुद्धि हो तो इससे अनासक्ति पृष्ट हो सकती हैं| जो पैसा शुद्ध साधन से कमाया है, उसके उपयोग में विवेक हो| पैसे का दुरूपयोग न हो, बेकार में ऐश आराम में न बह जाएँ, तो जीवन अच्छा बन सकता हैं,*पदार्थों का उपयोग ठीक हो सकता हैं|
आचार्य श्री ने आगे कहा कि हमारे जीवन में अनुकम्पा, दया के भाव हो| सलक्ष्य किसी को कष्ट देने का प्रयास न हो, हो सके तो किसी को सुख, शांति, चित्त समाधि पहुंचाने का प्रयास हो|*
जनता को अच्छा परामर्श, अच्छा पथदर्शन, अच्छी सलाह देते रहे*
आचार्य श्री ने आगे कहा कि स्वामी हरिप्रसाद जी से हमारा अनेक बार मिलना हो गया, अच्छा लगा, आपसे मिलना हुआ| अध्यात्म, धर्म, अहिंसा, संयम के प्रचार का काम अच्छा होता रहे और हम संत लोग जो, संन्यास को स्वीकार किया है, अपनी साधना को भी आगे बढ़ाने का प्रयास करते रहे| हमारी अपनी आत्मा की साधना, अपनी आत्मा की प्रकृति में, रहने की दिशा में आगे बढ़ने का प्रयास भी करते रहे और जनता को भी जितना हो सके, अच्छा परामर्श, अच्छा पथदर्शन, अच्छी सलाह, अच्छी बातें देते रहे, बताते रहे, तो हम एक अच्छे की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे|
धर्म शाश्वत हैं : स्वामी हरिप्रसाद*
विष्णु मोहन फाउण्डेशन एवं इस सम्मेलन के प्रणेता स्वामी हरिप्रसाद ने कहा कि धर्म शाश्वत हैं, वह हमेशा रहा हैं और रहेगा| यह बहुत ही उल्लेखनीय हैं कि हमारे देश में धर्म के अवशोषण की दिशा में महान आन्दोलन हुए| श्री कृष्ण, भगवान महावीर, भगवान बुद्ध धर्म के महत्व को, सत्य के महत्व को जानते थे|*उन्होंने अपरिग्रह और अनेकांत के द्वारा धर्म के मर्म*को समझाने का प्रयास किया|
स्वामी ने कहा कि मैने चिन्तन किया कि अपरिग्रह के विचार को चेन्नई में लाना चाहिए, मैं आचार्य श्री से मिला, उन्होंने स्वीकार किया, मैं आचार्य श्री का बहुत आभारी हूँ|
प्रकृति साध्य हैं, माता हैं : प्रो. भट्ट*
प्रो. एच आर भट्ट चेयरमैन भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद् ने कहा कि प्रकृति साध्य हैं, माता हैं| माता हमारा पोषण करती हैं| हम माता का सम्मान, आदर, पूजा करते हैं| तो हम प्रकृति माता का सदुपयोग करें| आपने आगे कहा कि चित्त को कुशल बनायेंगे, तो हमारी चर्या भी कुशल बनेंगी| चर्या कुशल बनेंगी, तो बाह्य प्रकृति का संतुलन बना रहेगा|
माया का आवरण हैं शरीर, बुद्धि और मन : डॉ कोठारी*
डॉ गुलाब कोठारी प्रधान सम्पादक राजस्थान पत्रिका ने कहा कि पुरी शिक्षा मेरी भौतिकवाद पर आधारित हैं| उसके अन्दर केवल सुख की कामना हैं| सुख शरीर की आवश्यकता हैं| चेतना की आवश्यकता सुख नहीं हैं| अभ्युदय शरीर की आवश्यकता है और निर्क्षेष्ठ चेतना की आवश्यकता हैं| आपने कहा कि माया का आवरण हैं शरीर, बुद्धि और मन|* जब तक व्यक्ति अपने आप को समझने का प्रयास नहीं करेंगा| अपने मूल स्वरूप को नहीं देखेगा, शांति प्राप्त नहीं होगी| आज हम शांति की तलाश में शरीर को केन्द्र में रख लिया तो परम शांति नहीं मिलेगी| अत: शांति, आनन्द चेतना का भाव हैं| हम उसे प्राप्त करने की दिशा में आगे बढ़े|
दर्शनशास्त्री श्री पन्नीर सेलम, समणी पुण्यप्रज्ञा ने अपने विचार व्यक्त किये| अतिथियों का चातुर्मास व्यवस्था समिति द्वारा सम्मान किया गया|
*✍ प्रचार प्रसार विभाग*
*आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास प्रवास व्यवस्था समिति, चेन्नई*
विभागाध्यक्ष : प्रचार – प्रसार
आचार्य श्री महाश्रमण चातुर्मास व्यवस्था समिति