क्रमांक – 27
. *तत्त्व – दर्शन*
*🔹 तत्त्व वर्गीकरण या तत्त्व के प्रकार*
*👉जैन दर्शन में नवतत्त्व माने गये हैं – जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, मोक्ष।*
*🔅 पुण्य तत्त्व*
*👉 नवतत्त्वों में जीव और अजीव के बाद तीसरा स्थान पुण्य का है। ‘शुभं कर्म पुण्यम्’ शुभ कर्मों को पुण्य कहा गया है। वास्तविक परिभाषा के अनुसार सात वेदनीय आदि शुभ कर्मों को पुण्य कहा जाता है। पहले बंधे हुए शुभ कार्य जब शुभ फल देते हैं तो वे पुण्य कहलाते है। किंतु कारण में कार्य का उपचार होने से जिन-जिन निमित्तों से शुभकर्म का बंध होता है, उन्हें भी पुण्य माना जाता है। जैनदर्शन में पुण्य को हो भी बन्धनकारी माना गया है। आचार्य भिक्षु के अनुसार पुण्य और पाप दोनों जंजीर हैं। दोनो बांधने का कार्य करते हैं। एक सोने की जंजीर है और दूसरी लोहे की पर दोनों बांधती ही हैं। पुण्य को सोने की जंजीर माना गया है तो पाप को लोहे की जंजीर। तच्च धर्माविनाभावि – वह (पुण्य) धर्म का अविनाभावि है- धर्म के बिना अकेला नहीं होता।*
*✒️नोट – कर्म बंधन दो प्रकार का होता है – शुभ बंधन और अशुभ बंधन। जब शुभ कर्मों का उदय होता है तो उन्हें पुण्य कहा जाता है और जब अशुभ कर्मों का उदय होता है तो उन्हें पाप कहा जाता है। कारण में कार्य का उपचार करने पर जिन-जिन कारणों से शुभ कर्म का बंधन होता है, उन कारणों को भी पुण्य कह दिया जाता है।*
*क्रमशः ………..*
*✒️ लिखने में कोई गलती हुई हो तो तस्स मिच्छामि दुक्कडं।
विकास जैन।