चेन्नई. ताम्बरम जैन स्थानक में विराजित साध्वी धर्मलता ने कहा कि श्रेष्ठ भिक्षु और पापी श्रमण दोनों ही जीवन यापन करते हैं। जीवन में पाप हो जाना स्वाभाविक है मगर छिपे हुए पाप की आत्मा की साक्षी से निंदा करे, गुरु के समक्ष गर्हा करे और गुरु जो प्रायश्चित दे उसे स्वीकार करे वही श्रेष्ठ भिक्षु कहलाता है और जो नियम को यम समझता है, पद प्रतिष्ठा से जुड़ा रहना चाहता है वह पापी श्रमण कहलाता है।
जिसके भीतर पाप के लिए अरुचि, अप्रीति और घृणा पैदा होती है वही साधक आलोचना और प्रयश्चित कर सकता है। प्रायश्चित हल्का होने की एक विद्या है एक अनूठा इरेजर है पाप छिप नहीं सकता है और प्रकट करेंगे तो वह घटता जाएगा।
छिपाकर रखेंगे तो वह दृढ़ हो जाएगा। पाप शरबत जैसा मीठा है। आत्मनिंदा चिरायता जैसे कड़वी है पर रोगी के लिए चिरायता फयदेमंद है। मन फिसलपट्टी जैसा है, एक बार फिसल गया तो फिसलता चला जाएगा। पारे की तरह बिखरता चला जाएगा। उसे पकड़ नहीं सकते। एक बार प्रशयिचत कर ले तो फिसलने का डर नहीं रहेगा।