चेन्नई. मीरसाहिबपेट स्थित केसर कुंज में विराजित जयधुरंधर मुनि ने कहा मनुष्य वही कहलाता है जो मननशील होता है। मनुष्य के पास तन के साथ मन भी उपलब्ध है जिसके द्वारा व्यक्ति चिंतन मनन करते हुए कार्य कर सकता है।
बिना सोचे समझे कार्य करने वाला मनुष्य पशु के समान है। तन की शुद्धि का हमेशा ध्यान रखने वाले मनुष्य को मन की शुद्धि की ओर भी ध्यान देना चाहिए। मन के द्वारा ही कर्मों का बंध भी होता है और कर्मों की निर्जरा भी की जा सकती है। मन के पाप भले ही सामने वाले को दिखाई न दे किंतु उसका दंड अवश्य भोगना पड़ता है।
भगवान महावीर ने अहिंसा का सूक्ष्मता से वर्णन करते हुए मन से भी हिंसा करने का निषेध किया है। मन में पाप क्रिया करने के बाद मन में प्रसन्नता नहीं बल्कि पश्चाताप का भाव होना चाहिए। मन से होने वाला प्रायश्चित ही पाप धोने का सबसे सरल उपाय है। मन से जाने अनजाने में कितने पाप कर्मों का बंध कर देता है। अनुमोदना पाप की नहीं, धर्म की होनी चाहिए।
दान देने वाले, तपस्या करने वाले, या किसी भी प्रकार की धर्म आराधना मे रथ साधकों की अनुमोदना करने से उस व्यक्ति को भी उसका लाभ प्राप्त होता है। व्यक्ति के जैसे विचार होते हैं, वैसे ही उसका आचार होता है। उसके आचरण के अनुरूप ही उसका व्यवहार होता है। जिस प्रकार टंकी में जैसा पानी होता है वैसा ही नल में आता है, उसी प्रकार मन का वचन और काया पर प्रभाव पड़ता है।
इसके पूर्व समणी श्रुतनिधि ने भी अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि अपने तन के रोग से ज्यादा मन के रोग को मिटाना जरूरी है। इस अवसर पर जयकलशमुनि, जयपुरंदरमुनि, समणी श्रीनिधि उपस्थित थे। यहां से मुनिगण विहार करके मईलापुर जैन स्थानक पहुंचेंगे।