चेन्नई. सोमवार को उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज ने अन्नानगर, चेन्नई में प्रेमराज के निवास पर धर्मसभा को संबोधित करते हुए कहा कि हम सभी अपने मन को बदलना चाहते हैं लेकिन बदल नहीं पाते हैं। एक शेर का मन भी बकरी का बनाया जा सकता है। जिस मनुष्य में अनन्त संभावनाएं हैं, वह दूसरों को चेंज कर देता है लेकिन स्वयं को नहीं कर पाता है।
इसके लिए एक उदद्ेश्य और अनुशासन की जरूरत रहती है। उस प्रोटोकाल के दो सूत्र है- शेर अनुशासन में रहता है तो उसे खाना दिया जाता है और नहीं रहता है तो उसे हंटर मारा जाता है। उसी प्रकार परमात्मा ने दो उपाय दिए हैं पहला-भक्ति और दूसरा प्रायश्चित। भक्ति खाना है और प्रायश्चित हंटर है। हमें खाना तो अच्छा लगता है लेकिन हंटर नहीं। जो दूसरे के हंटर खाकर सुधरे वह जानवर है। यदि स्वयं ही स्वयं के लिए यह करता है, वह सम्यकदृष्टि कहलाता है। स्वयं के लिए स्वयं ही स्वीकार किया हुआ दंड तप कहलाता है। सेल्फ पनिशमेंट प्रायश्चित है और दूसरे द्वारा दिया हुआ दंड कहलाता है।
यदि एक बार हंटर मिला तो शेर भी गलती नहीं करता उसी प्रकार हम एक बार प्रायश्चित करने पर पुन: गलती न कर सकें और यदि गलती को आप दोहराते हैं तो ठीक से प्रायश्चित नहीं किया है। बाहर की यात्रा के लिए उपवास, अन्दर की यात्रा के लिए अध्यात्म और आत्मा की यात्रा के लिए पहला काम है प्राश्चित। जब नहीं करता है तब तक परमात्मा उसे वंदन करने का भी अधिकार नहीं देते हैं। परमात्मा कहते हैं कि विनय से पहले प्रायश्चित करें। घर को अन्दर से शुद्ध बनाना हो, परिवार में शांति रखनी हो तो वहां पर भी प्रायश्चित की व्यवस्था होनी चाहिए। वो घर सदैव प्रगति करता है।
आगम में उस गुरु को गुरुपद पर रहने की मना है, जो अपने अंडर में चलनेवाले को प्रायश्चित नहीं देता है। जिस संघ में इसकी व्यवस्था न हो वह शमशान जैसा हो जाता है ऐसा वाक्य धर्मग्रंथों में लिखा है। दुर्योधन और दुशासन इसलिए बने कि उनकी पहली गलती पर दंड और प्रायश्चित नहीं मिला। जो गुरु, मां-बाप और आचार्य प्रायश्चित नहीं दे पाते वो गुनाहगार है।
जैन धर्म में तो सबसे पहला प्रायश्चित है मिच्छामि दुक्कडं। सामायिक तभी कर सकते हैं जब इच्छाकारेणं कहकर प्रायश्चित लेते हैं। हमारे यहां तो विधान है- संत प्राश्चित दे सकता है, पनिश्मेंट नहीं और प्रायश्चित सामनेवाला मांगे तो ही दिया जा सकता है। इस मनुष्य जन्म, धर्म, तप, माला, सेवा, दान को सार्थक करना हो तो प्रायश्चित सबसे पहले करो। नहीं तो बाहर के दरवाजे तो खुल जाते हैं लेकिन अन्तर के दरवाजे नहीं खुलते। प्रसिद्धि का दरवाजा तो खुल जाएगा, पाप तो रुक जाएगा लेकिन पुण्यानुबंधी पुण्य का दरवाजा नहीं खुलता है। जिस पुण्य में से पुण्य का जन्म हो जाए वह पुण्यानुबंधी पुण्य है।
एक बार भी पुण्यानुबंधी पुण्य करोगे तो जन्म-जन्म में उसका फल मिलता रहेगा। केवल पुण्य का काम करोगे, जितना करोगे उतना ही मिलेगा। हम पापानुबंधी पाप बांधते रहते हैं। एक पाप करते हैं तो उसके साथ अनेक पापों का जंगल खड़ा हो जाता है। हमारे जीवन में पाप में से पापों का जन्म होता जाता है, लेकिन पुण्य में से पुण्य का जन्म नहीं हो रहा है। झगड़े में से झगड़े का जन्म हो रहा है लेकिन प्रेम में से प्रेम का जन्म नहीं हो रहा।
झगड़ा बढ़ाओ मत, वैर को लंबा खींचो मत। तो पाप वहीं समाप्त हो जाएगा। किसी ने आपके साथ आज दुव्र्यवहार किया है तो उसे आज ही भूल जाओ कल याद मत रखो, तो पापानुबंधी पाप रुक जाएगा। आज किसी ने आपको सहयोग किया है तो उसे मत भूलो, उसके प्रति कृतज्ञता रखेंगे तो पुण्यानुबंधी पुण्य का जन्म होगा। सहयोग को भूल जाते हैं तो पुण्य समाप्त हो जाता है और विरोध को याद रखने पर पाप बढ़ता ही जाता है।
जिस दिन अपने जीवन में प्राश्चित लेना शुरू करोगे तो मन, जिंदगी सुधर जाएगी। तुम पूजनीय बन जाओगे। प्रायश्चित पापों को जलाने की आग है और भक्ति पुरस्कार की बाग है। हमें पापों को जलाने के लिए आग भी चाहिए और बीज को फलित करने के लिए बाग भी चाहिए। इसके लिए दो ही सूत्र है- प्रायश्चित और विनय।
यदि अपनी गुडविल बनानी है तो अपने धर्म की गुडविल बनाएं। जो अपने धर्म, गुरु, भगवान और धर्मसभा की गुडविल बनाता है दुनिया उसके सामने नतमस्तक होती है। आपको अपनी संतानों को धर्म के साथ जोडऩे के लिए प्रयास नहीं करना पड़ेगा।