पीथापुरम. यहां आराधना भवन में विराजित मुनि संयमरत्न विजय ने कहा जब व्यक्ति की अपेक्षा उपेक्षित होती है तो उसे क्रोध आता है। अपेक्षा और क्रोध का गहरा रिश्ता है। पहले हम संबंध बढ़ाते हैं, फिर संबंधियों से अपेक्षा रखने लग जाते हैं लेकिन जब कोई हमारी अपेक्षा की अनुप्रेक्षा न करके उपेक्षा करने लग जाता है, तब हमें बुरा लगता है।
फिर संबंधों में दरार पडऩा प्रारंभ हो जाती है। आदमी चाहता है कि मेरे अनुसार परिवार जीए, समाज जीए। जिस ट्रस्ट में मैं ट्रस्टी हूँ, वहाँ मेरा ही दबदबा चले। अपना दबदबा बनाने के लिए व्यक्ति किसी को भी दबाने के लिए तैयार हो जाता है। दबदबा उसी का रहता है जो किसी को दबाता नहीं उसे ऊपर उठाता है,दूसरों की प्रगति में सदा खुश रहता है। यदि कोई अपरिचित व्यक्ति आपकी उपेक्षा करे तो हमें गुस्सा नहीं आता,पर कोई खास परिचित आदमी हमारी उपेक्षा करे तो हम उसी समय क्रोधित हो जाते हैं।
उपेक्षित अपेक्षा हमेशा गुस्से का कारण बनती है। इससे बेहतर तो यही है कि हम औरों से आशा रखने की अपेक्षा अपने आप से ही अपेक्षा रखें। हमें औरों की उपेक्षा का शिकार बनकर अपने आपको अशांत नहीं बनाना चाहिए। व्यक्ति के अहंकार को जब चोट लगती है,तब उसे गुस्सा आ जाता है।
जब तक हमारा अहंकार परिपुष्ट होता रहता है, तब तक हम सामने वाले से खुश रहते हैं। अहंकार को चोट लगते ही हम क्रोधित हो बैठते हैं। नाम के लिए दाम न लगाकर हमें परोपकार के काम में दाम का दान करना चाहिए।