चेन्नई. किलपॉक में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य तीर्थभद्र सूरीश्वर ने कहा मोक्ष मार्ग में दो भाग हैं। जो करने योग्य है उसे करना चाहिए और जो करने योग्य नहीं है उसका त्याग करना चाहिए। निषेध तत्व प्रायश्चित के पात्र हैं, उनके लिए हमें प्रतिक्रमण करना चाहिए।
उन्होंने कहा प्रतिक्रमण एक सामान्य क्रिया नहीं है, यह एक योग साधना, योग विधान है। आत्मा की शुद्धि के लिए घर पर ही प्रतिक्रमण किया जा सकता है। यदि प्रतिक्रमण के सूत्रों का अर्थ जानेंगे तो आपको परमात्मा के प्रति अहोभाव पैदा होगा। प्रतिक्रमण को हमने उतनी महत्ता नहीं दी, जितनी पूजा को।
उन्होंने कहा प्रतिक्रमण में पाप का क्षय है और पूजा से पुण्य के बंध होते हैं लेकिन मोक्ष पाप के क्षय से मिलता है। पुण्य की जरूरत हमें सद्गति प्राप्त होने के लिए है। पाप का क्षय प्रतिक्रमण से ही संभव है।
उन्होंने कहा हमारे जीवन में दो बड़े दोष हैं अहंकार व आसक्ति। अहंकार को तोडऩे का उपाय है दूसरों के गुणों को ग्रहण करना, उनकी प्रशंसा करना और अपने दोषों को स्वीकार करना। जो व्यक्ति यह कहता हैं उसमें अहंकार नहीं है वह सबसे बड़ा अहंकारी है। आचार्य ने कहा यदि सम्यक दर्शन को सुरक्षित रखना है तो दर्शनाचार के आठ आचार का पालन करना होगा।
उन्होंने कहा अवचेतन मन का स्वभाव है जो बोलेंगे वह ग्रहण कर लेता है। वह दोषों को भी स्वीकार कर लेता है। प्रशंसा बहुत बड़ा गुण है, वह मन और वचन से होती है और अनुमोदना मानसिक स्वीकृति होती है।
आचार्य ने आत्मा से परमात्मा बनने के लिए महामंत्री वस्तुपाल द्वारा गई प्रार्थनाओं का विश्लेषण करते हुए बताया हमें फल की याचना के बजाय बीज की याचना करनी चाहिए जैसे कि वस्तुपाल ने शास्त्रों के अभ्यास एवं परमात्मा की भक्ति के लिए शक्ति की याचना की। वस्तुपाल ने सज्जन व्यक्तियों का साथ मिलने की याचना की ताकि सद्बुद्धि, सद्विचार मिल सके।
प्रशंसनीय व्यक्तियों के गुण गान करने वाला बनने की याचना की। उन्होंने कहा हमारे जीवन में गुणानुराग आने पर हमारा मन भी गुणवान बनेगा और यह आपके उत्थान का कारण बनेगा।