चेन्नई. माधवरम में जैन तेरापंथ नगर स्थित महाश्रमण सभागार में विराजित आचार्य महाश्रमण ने ‘ठाणं’ आगम के प्रथम स्थान में बताया गया है कि पुण्य एक है। जब कोई आदमी शुभ कर्म करता है तो उससे निर्जरा तो होती ही है, उसके साथ पुण्य का बंध भी होता है।
शुभ कर्म और योग की प्रवृत्ति से दो कार्य होते हैं- पहला कार्य होता है कर्म निर्जरा और आत्मा निर्मल बनती है। आत्मा के साथ पुण्य का बंध भी हो जाता है। पुण्य का बंध कभी भी स्वतंत्र रूप में नहीं होता।
पुण्य का बंध तभी होता है जब आदमी शुभ योग अथवा कर्म में प्रवृत्त हो। पुण्य का बंध धार्मिक क्रिया करने से होता है। जिस प्रकार अनाज के साथ भूसी भी स्वत: प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार शुभ कर्मों से निर्जरा रूपी अनाज के साथ-साथ पुण्य रूपी भूसी भी स्वत: प्राप्त हो जाती है।
आदमी द्वारा किए जा रहे शुभ कर्मों से निकलने वाले सूक्ष्म कण शुभ होते हैं जो आत्मा से चिपकते जाते हैं। समय-समय पर उनका विपाक होता है तो वे इस प्राणी को फल भी देते हैं। इस प्रकार आदमी को पुण्य का शुभ फल भी प्राप्त होता है।
आदमी को पुण्य की आशा नहीं निर्जरा की कामना से शुभ और धार्मिक कार्य करने का प्रयास करना चाहिए। पुण्य तो स्वत: प्राप्त हो जाएगा। आचार्य ने बुधवार को आगमाधारित अमृतवाणी सुनाने के पश्चात् राजा मुनिपथ की कथा के क्रम को भी आगे बढ़ाया। अंत में कई लोगों ने आचार्य के समक्ष अट्ठर्इा की तपस्या का प्रत्याख्यान कर आशीर्वाद प्राप्त किया।