पुरुषवाक्कम स्थित एमकेएम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि ने कहा धर्म के राजमार्ग पर वही पुरुष चलते हैं, जिन्होंने जिस उल्लास और उमंग से कदम उठाया है उसे मंजिल मिलने तक रुकने नहीं देते। धर्म मार्ग पर चलने से पहले मन में जो शंकाएं आती है, उन्हें मन से निकाल देना। इस जीव का चिर-परिचित है-आस्रव का द्वार, कषाय का रास्ता।
आचारांग कहता है कि इस धर्म मार्ग में आज्ञा को दिल से स्वीकार करो, तर्क और बुद्धि से नहीं। आज्ञा पर चिंतन और तर्क नहीं किया जाता है, जिसने आज्ञा पर तर्क कर लिया उसने आज्ञा की शक्ति खो दी। जब अन्तर में शक्ति का जागरण होता है तो ही शुभ काम करने का मन में आता है, इसे उसी समय तत्काल कर लें।
यदि आगे के लिए टाल देंगे तो बाद में नहीं कर पाएंगे। यदि अपने से बड़े-जन जो आज्ञा देते हैं तो वे आज्ञापालन की ताकत और शक्ति भी देते हैं, उस पर यदि प्रश्नचिन्ह लगाओगे तो आने वाली शक्ति का मार्ग अवरुद्ध कर दोगे, प्राप्त होते-होते वरदान को इनकार कर दोगे। साधना के मार्ग पर आज्ञा ही चलती है, आज्ञा ही मेरा धर्म है यह समझें।
भयभीत होकर कोई भी आज्ञा स्वीकार नहीं करना और किसी को भय देना भी नहीं। यदि आप से कोई डरता है तो समझें कि आप में दोष हैं, कांटे हैं, भयंकरता विद्यमान है। प्रभु के समवशरण में किसी को किसी से डर नहीं लगता क्योंकि वहां वात्सल्य, दया, आस्था और प्रेम है। निरंतर प्रयास करें कि किसी को भी आपसे भय न लगे, जीवन में ऐसा बनने का प्रयत्न करें।
परमात्मा ने चंडकोशिक का सामथ्र्य स्वीकार किया था कि उसमें भी प्रेम और क्षमा का सागर है, उससे पहले उन्होंने स्वयं के अन्दर की क्षमा, प्रेम, करुणा और आस्था को स्वीकार किया था कि मुझ में इतना सामथ्र्य है कि मैं इसे बदल सकंूगा, तब जाकर चंडकोशिक क्षमावान बना। अहिंसा, श्रद्धा, साधना के मार्ग पर चलना हो तो स्वयं के साथ दूसरों का सामथ्र्य भी स्वीकार करें।
जो दूसरे के संयम, समर्पण और अच्छाई को इन्कार करते हैं वे स्वयं अपने ही संयम और अच्छाई को इन्कार कर देते हैं। कभी यह न कहें कि यह कार्य मैं कर नहीं सकता। आपको कोई आज्ञा देने वाला आप पर आस्था, प्यार और भरोसा होने से ही आज्ञा देता है। दूसरे के प्रेम, क्षमा और अधिकार को इन्कार करोगे तो वहीं से झगड़ा शुरू हो जाएगा। उन्होंने राजा श्रेणिक चारित्र के बारे में विस्तार सें बताया।