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ज्ञान वाणी

धर्म के साथ धर्म का माहौल भी होना परमावश्यक है: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

धर्म के साथ धर्म का माहौल भी होना परमावश्यक है: उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि

चेन्नई. गुरुवार को श्री एमकेएम जैन मेमोरियल, पुरुषावाक्कम में विराजित उपाध्याय प्रवर प्रवीणऋषि एवं तीर्थेशऋषि महाराज का उत्तराध्ययन सूत्र वाचन कार्यक्रम हुआ। उपाध्याय प्रवर ने कहा कि परमात्मा की देशना है कि इस जगत के स्थावर, त्रस व सभी जीवों के रूप अनित्य है लेकिन उनकी चेतना नित्य है। उनके चेतन्य के नित्य स्वरूप और बदलते पर्याय को जानकर परमात्मा ने दिव्य धर्म की देशना दी, उसे जानें। तीर्थंकर परमात्मा और उनका धर्म अलग नहीं है। दोनों में से किसी एक को भी ग्रहण कर लिया जाए तो दोनों ही ग्रहण हो जाते हैं।

साधना के साथ जुड़े हुए पूर्वजन्म के रिश्ते बिना जाने और बिना समझे भी इस जीवन में भी एक दूसरे को साधना मार्ग पर ले जाते हैं। पूर्वजन्म के साधना के साथी छह जीव जो स्वर्ग का आयुष्य पूर्ण कर इस जन्म में इशुका राजा, उसकी रानी कमलावती, भृगु पुरोहित और उसकी पत्नी भद्रा तथा उनके दो पुत्रों का प्रसंग बताया। चार जीव पहले आते हैं और दो पुत्रों के जीव स्वर्ग से देखते हैं कि जो पिछले जन्म के साथी थे, वे ही हमारे मां-बाप बनेंगे।

वे दोनों ब्राह्मण बनकर उनके घर गए। आते हैं और उन निसंतान भृगु पुरोहित को कहते हैं कि तुम्हें संतति तो होगी लेकिन उन्हें साधु बनने से नहीं रोकना। दोनों बच्चों के जन्म के बाद पुरोहित ने ऐसा माहौल बनाया कि उनमें धर्म की प्रति इच्छा ही न हो। लेकिन एक संत के आचरण और वाणी को सुनकर उन बच्चों को पूर्वजन्मों का ज्ञान होता है और वे अपने पिता भृगु पुरोहित को साधु बनने की इच्छा कहते हैं। वह उन्हें रोकने का हर प्रयास है लेकिन निष्फल रहता और अन्त में स्वयं भी उनके साथ दीक्षा लेने चल पड़ता है उसके साथ उसकी पत्नी भी धर्म राह पर चलती है।

उन चारों के संन्यास लेने पर सारी धन-संपत्ति राजा को समर्पित कर दी जाती है। राजा इससे सीख ग्रहण नहीं करता है लेकिन रानी भृगु पुरोहित के घर से आती सारी संपत्ति को देखकर राजा को धिक्कारती है और राजा और रानी भी उस पुरोहित परिवार के चारों सदस्यों के साथ दीक्षा लेते हैं। जो भी हम पाप-पुण्य करते हैं वह कभी नष्ट नहीं होता, सदैव साथ में चलता है। उनके उदय में समय जरूर लगता है। कर्मसिद्धांत के अनुसार उन्हें रोका भी जा सकता है और समय से पहले भी उसे जाग्रत किया जा सकता है। इस संसार का दु:ख गहरा है और सुख मात्र ऊपर का ही है। संसार और मोक्ष दोनों विपरीत रास्ते हैं।

उपाध्याय प्रवर ने कहा कि जब किसी साधक की निंदा करते हैं तो उसकी साधन और संयम का भी अपमान करते हैं। इसलिए कभी किसी की निंदा न करें। सदैव भावना रखें कि मैं किसी साधक की गलती की निंदा नहीं करूंगा। दूसरों की खूबियां खोजोगे तो जीवन में ज्ञान का उजाला होगा और कमियां खोजोगे तो उसी ज्ञान से जीवन में अंधियारा होगा।

परमात्मा कहते हैं कि हम सभी को निष्काम और मोह मुक्त होने की कामना करनी चाहिए। जो आज तक जाना नहीं उसको जानने का प्रयास करता है उस भिक्षु के जीवन में अनूठा आनन्द आता है। जो राग से मुक्त होकर स्वयं की रक्षा करता है। अज्ञान को पराजित कर सर्वदर्शी हो जाओ जीवन में कहीं पर भी लापरवाह मत बनो।

साधक बनने के लिए अव्यग्र मन से चलते हुए मन को अपनी साधन और लक्ष्य पर केन्द्रीत करो। अनुकूलता और प्रतिकूलता सभी को समग्रता से सहन करो। अपनी प्रशंसा की कामना कभी मत करो। दूसरों की नहीं, स्वयं की खोज करें, अपनी आस्था और धर्म को पर पूरा विश्वास रखें। स्वयं को सुधारें, नकारात्मकताओं को दूर करें। समय, स्थितियां और परिस्थितियों को दोष न दें, इससे व्यक्ति स्वयं को कमजोर समझता है।

किसी ने कुछ नहीं दिया तो परेशान न हों और जिसने सहयोग दिया है उसकी अनुकंपा कर उसका संसार न बढ़ाएं। आगम में दस श्रावकों का चरित्र कहा गया है। तपस्वीयों के पास देवता आते हैं, भिन्न-भिन्न शब्द बोलते हैं लेकिन जो उनमें उलझ जाए वह साधना से विचलित होता है। श्रावक को दुनिया के सारे तत्त्वज्ञान को जानना चाहिए और अपनी अन्तरात्मा की मानें और किसी की अवमानना भी न करें। साधु के लिए कोई स्थाई स्थान नहीं और सभी जीव मित्र हैं, कोई शत्रु नहीं है, वह सबको छोड़कर अकेला चलता है।

परमात्मा कहते हैं कि जो दीक्षापरांत पढऩे से इन्कार करता है, गरिष्ठ आहार करता है, अपनी गलतियों को बताने वाले की गलतियां ढंूढनेवाला और जो शांत विवाद को पुन: बढ़ाता है, वह पापी श्रमण है। वह नकारात्मकताओं को बढ़ता ही जाता है। छोटी-छोटी बातों से वह पाप का उपार्जन करता जाता है। इसलिए पुण्यशाली श्रमण और धर्म के सच्चे आराधक बनने का प्रयास करें।

परमात्मा की वाणी की वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परम आवश्यकता बताते हुए उपाध्याय प्रवर ने कहा कि ब्रह्मचर्य के साथ ब्रह्मचर्य का माहौल भी होना चाहिए। ज्ञान-ध्यान के साथ उसका माहौल भी होना चाहिए। इसके बिना कोई साधना पूरी नहीं होती। आज के समय में हर साधारण व्यक्ति के लिए भी ब्रह्मचर्य का वातावरण होना बहुत जरूरी हो गया है। आज सारा वातावरण ब्रह्मचर्य का शोषक और अमर्यादा का माहौल बना है, जो आज व्यभिचारों को बढ़ावा दे रहा है। दिनों दिन हृदयविदारक घटनाएं होती जा रही है। ब्रह्मचर्य तब तप और समाधि बन जाती है जब ब्रह्मचर्य का माहौल होता है, नहीं तो यह श्रद्धा से भ्रष्ट करके बीमारी दे जाता है, व्यक्ति पागलपन तक चला जाता है।

अपनी आनेवाली पीढ़ी के संस्कारों और स्वास्थ्य की रक्षा के लिए अपने घरों के माहौल को संयम का पोषक बनाएं, भोग का नहीं। आज के अमर्यादित माहौल में पल-बढ़कर आपकी संतति पर उसका कुप्रभाव पड़ता है। हमें यह जरूर चिंतन करना चाहिए कि हम उन्हेें कैसा माहौल दे रहे हैं। हमें संभलना बहुत जरूरी है।

जैसी श्रद्धा और आपके आसपास माहौल होगा, वैसी ही आपकी समाधि होगी। अपने घरों में परमात्मा के धर्म का माहौल बनाएं, अपने धर्म से जुड़ें।

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