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सुंदेशा मुथा जैन भवन कोंडितोप में जैनाचार्य श्रीमद् विजय रत्नसेनसुरीश्वरजी म.सा ने कहा कि:- किसी भी वस्तु को तैयार करने के लिए , उसकी विधि का यथायोग्य पालन करना जरुरी हैं । यदि विधि का पालन न करे, तो निर्णित वस्तु के बदले अन्य वस्तु बन जाती हैं ।
पेट भरने के लिए बनाई जाने वाली रसोई भी उसकी विधि के पालन पूर्वक ही की जाती हैं । उसी प्रकार ही धर्म की आराधना भी यथायोग्य विधि के पालन पूर्वक होनी चाहिए। काया से विधि का पालन और मन से शुभ संकल्प के द्वारा हम धर्म की सच्ची आराधना कर सकते हैं ।
देव -गुरू और धर्म से संपर्क जोडने के लिए भूतकाल में हुए आचार्य श्री देवेन्द्रसुरीश्वरजी महाराजा ने तीन भाष्य सूत्र की रचना की हैं । देव तत्त्व की आराधना के लिए चैत्यवंदन भाष्य , गुरू तत्त्व की आराधना के लिए गुरूवंदन भाष्य एवं व्रत -नियम-पच्चक्खाण स्वीकर करने पच्चक्खाण भाष्य का ज्ञान आवश्यक हैं ।
श्रावक के जीवन में देव – गुरू और धर्म की आराधना अनिवार्य हैं । उसका जीवन सदा देव गुरू धर्म की आराधना मय होता हैं । जिस दिन उसे इनकी आराधना न हो , वह दिन उसके लिए निष्फल माना जाता है ।
देव गुरू का संपर्क साक्षात् होना चाहिए। यांत्रिक साधनों का त्याग करना चाहिए क्योकी विज्ञान के इन साधनों ने हमे देव गुरू के संपर्क से दुर कर दिया है । आज व्यक्ति विज्ञान के साधनों के अधीन बना हैं । सुबह उठते ही व्यक्ति भगवान के बदले मोबाइल को याद करता हैं ।
यह सारा संसार चक्र की तरह हैं जिसमें कभी उतार आता हैं तो कभी चढ़ाव , इन उतार -चढ़ाव में हमारी आत्मा गुमराह न हो इसलिए सतर्कता से देव गुरू की भक्ति में एकतान बनना चाहिए। संसार सागर में वे नाव के समान है भव भ्रमण के ताप से तप्त बनी हमारी आत्मा के लिए वे चन्दन से भी अति शीतलकारक हैं ।