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धर्म का आकर्षण नहीं किंतु धर्म की प्रभावक्ता होनी ही चाहिए: डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा.

धर्म का आकर्षण नहीं किंतु धर्म की प्रभावक्ता होनी ही चाहिए: डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा.

 स्थल: श्री राजेन्द्र भवन चेन्नई

 विश्व वंदनीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेंद्र सुरीश्वरजी महाराज साहब के प्रशिष्यरत्न राष्ट्रसंत, संघ एकता शिल्पी श्रीमद् विजय जयंतसेनसुरीश्वरजी म.सा.के कृपापात्र सुशिष्यरत्न श्रुतप्रभावक मुनिप्रवर श्री डॉ. वैभवरत्नविजयजी म.सा. के प्रवचन के अंश

   🪔 *विषय : सर्वश्रेष्ठ तेजोमय तप धर्म*🪔

~ हमारे जीवन में धर्म का आकर्षण नहीं किंतु धर्म की प्रभावक्ता होनी ही चाहिए।

~ संसार के सभी व्यवहार जीव को आकर्षित करके बंधन में ले जाता है लेकिन धर्म के सभी व्यवहार और ज्ञान जीव को प्रभावक बनाकर मुक्ति की ओर ले जाता है।

~ संसार जिस पल मिट गया भीतर से उसी क्षण परमात्मा प्रकट हो गए।

~ परमात्मा यानी मोह, माया के आकर्षण का पूर्ण विनाश।

~ जब परमात्मा की प्रभावक्ता का समयक् बोध होता है तब हमारे भीतर में रहा प्रभावक् चैतन्य भी प्रकट होता ही है क्योंकि परमात्मा पारसमणी तुल्य है।

~ जिस साधक के पास सम्यक् दर्शन है वह पूर्व के अनंत भावों की क्षमणा का मूल कारण भी देख सकता है और उसके नाश का उपाय भी जान सकता है।

~ रे साधक! तू अंध नहीं है, अधूरा नहीं है और अंधेरे में भी नहीं है।

~ धर्म की सर्वश्रेष्ठ महिमा पूर्ण दशा यह है कि हम सत्य के साथ कितने जुड़ते हैं।

~ मेरे दुख, कर्म क्षय के लिए प्रभु ही श्रेष्ठ आलंबन है ऐसा प्रबल विश्वास होना ही चाहिए।

~ प्रभु का भक्त जब भगवान नहीं बने तब तक भगवान का स्नेह अखंड, अनंत होता ही है।

~ जैसे मां और बेटे का स्नेह नी:स्वार्थ, निर्मल, निर्दोष होता है वैसे ही भक्त और भगवान का स्नेह अनंत, अस्खलित अव्याबाध होता ही है।

~ महामंत्र का बल, ऊर्जा, power को पाने वाला साधक का कर्म भी कुछ नहीं कर सकता तो संसार के लोग, दुख, दर्द, संक्लेश मैली विद्या कैसे कुछ बिगाड़ सकती है।

~ अरिहंत प्रभु को समझने वाला भक्त सभी का अच्छा ही सोचेगा यानी बुरा कभी भी ना सोचेगा, न करेगा इसीलिए वह भक्त तन से, मन से, वचन से या धन से दुखी हो ही नहीं सकता।

    *”जय जिनेंद्र-जय गुरुदेव”*

🏫 *श्री राजेन्द्रसुरीश्वरजी जैन ट्रस्ट, चेन्नई*🇳🇪

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