चेन्नई. किलपॉक स्थित कांकरिया भवन में विराजित साध्वी मुदितप्रभा ने कहा प्रभु महावीर की तरह हमें भी वैरी एवं अन्य हर जीव के प्रति प्रेम भाव रखना चाहिए। बदला लेने की भावना रखना, मन में वैर भाव रखना भी भाव हिंसा का रूप ही है। किसी की पीड़ा या दर्द में अगर हम आनंदित या हर्षित और किसी के आनन्द में अगर हम पीडि़त, दु:खी होते हैं तो यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है।
स्वयं के मूल गुणों पर घात किये बिना दूसरों पर किसी प्रकार से घात किया ही नहीं जा सकता। दूसरों का बिगाड़ करने के पूर्व हम अपनी आत्मा का ही बिगाड़ते हैं। बाहर से पीटना, मारना ही हिंसा का रूप नहीं बल्कि अन्दर से अपने दिल में किसी के प्रति मारने, नुकसान पहुंचाने के भाव भी हिंसा का रूप ही है।
आचारांग सूत्र में सुन्दर वर्णन हैं कि जिसे तुम मार रहे हो, पीड़ा पहुंचा रहे हो वो कोई और नहीं, तुम स्वयं ही हो। हम अपनी उदारता, शीतलता, लघुता गुणोंं का गला घोटे बिना दूसरों को पीड़ा पहुंचा ही नहीं सकते। मेरे अन्दर सेवा भाव गुण बरकरार रहे, जीवित रहे और मेरे गुणों का विकास हो।
उन्होंने हिंसा के चार प्रकार बताए संकल्प हिंसा जो कि संकल्पपूर्वक की जाती हैं। आरम्भझ हिंसा वो है जो हमारे दैनिक जीवन में अग्नि, वायु, अप्प काय की हिंसा होती है । उद्योगिनी हिंसा जो हमारे व्यापार आदि में होती है उत्तराध्ययन सूत्र के चौबीसवें अध्य्यन में हिंसा के तीन रूप संभरम्ब, संभारम्भ और आरम्भ की विवेचना की।
तीन हिंसा के रूप का चार कषायों से गुणा और फिर मन, वचन काया के योग से गुणा करने के बाद करना, करवाना और हिंसा का अनुमोदन करना इस प्रकार 108 प्रकार से हिंसा का पाप हमें लगता है ।