कोंडीतोप स्थित सुंदेशा मूथा भवन में विराजित आचार्य पुष्पदंत सागर ने कहा दुर्जन व्यक्ति का आनंद भीड़ को गुमराह करने में है सुधारने में नहीं, ताकि उसकी प्रतिष्ठा बनी रहे। लोगों में उसका दबदबा बना रहे। अपनी उन्नति को पुष्ट करने व अपनी दुर्भावना से सबको जोड़ता रहे।
यह जघन्य अपराध है। अच्छा आचरण करना दूसरा व्यक्ति स्वीकार करेगा या नहीं इसमें संदेह है। कोई दुर्जन अपनी दुष्प्रवृत्तियों को जगजाहिर कभी नहीं करता। वह बदनामी से डरता है।
भीड़ का नहीं विवेक का अनुसरण करना चाहिए। भीड़ का अनुसरण करने वाला सुधरता नहीं बिगड़ता है। एक कुशल वक्ता हजारों-लाखों को कुछ मिनट के भाषण में गुमराह कर सकता है लेकिन भाषणकर्ता को स्वयं को सुधारने में वर्षों लग सकते हैं।
व्यक्ति अपना स्वास्थ्य रोगी को नहीं देता लेकिन अपना रोग दूसरों को दिए बिना नहीं रहता। उन्होंने कहा मेरा प्रयास दुर्जनों को सज्जन बनाने का है एवं जो सज्जन हैं वे संतजन बनें। देश की उन्नति सत्संग करने एवं सज्जन बनने में है।
देश की उन्नति के तीन कारण हैं- राजनेता, मीडिया व प्रजा। राजनेता का जीवन पारदर्शी, जाति व पार्टी निरपेक्ष होना चाहिए। यदि मीडिया राजनीति के हाथ की कठपुतली है तो व्यक्ति विशेष की ही ख्याति होगी देश की उन्नति नहीं। इसी प्रकार प्रजा को जाति विशेष के पक्ष में नहीं देशहित में होना चाहिए।
शासक के लिए प्रजा परिवार की तरह होनी चाहिए। संतगण देश की उन्नति व सुधार में कार्यरत हैं व सफल भी हैं लेकिन यह सफलता संप्रदायगत नजर आती है राष्ट्रीयगत नहीं। फूलों का हार बन जाए तो उनकी शोभा नजर आती है और फूल बिखर जाए तो मूल्य नजर नहीं आता व्यक्ति नजर आता है।