चेन्नई. किलपॉक में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्य तीर्थ भद्रसूरिश्वर ने कहा दुख मुक्ति के लिए पाप मुक्त
होना जरूरी है । पाप की प्रवृत्ति जारी रहेगी तो दुख मुक्ति नहीं मिल सकती ।
होना जरूरी है । पाप की प्रवृत्ति जारी रहेगी तो दुख मुक्ति नहीं मिल सकती ।
जब तक शरीर है, पाप क्रिया जारी रहेगी । शरीर की आवश्यकता के लिए अर्थ जरूरी है और अर्थ अर्जन के लिए पाप क्रिया चलती ही रहती है।
आचार्य ने कहा जब कर्मों से मुक्ति मिलेगी तब ही देह की मुक्ति होगी । तीर्थंकर की आत्मा को भी मानव जन्म लेना पड़ता है । जन्म का मतलब नया शरीर धारण करना है। दुख का कारण पाप, पाप का कारण देह, देह का कारण कर्म और कर्म करने का कारण मोह है ।
जो कर्म जिस रूप में भोगा जा सकता है, वही जन्म मिलता है । जन्म भूतकाल में किए कर्मों की सजा है। उन्होंने कहा यदि दुख से मुक्ति चाहिए तो राग और द्वेष से बचने की कोशिश करो ।
मोक्ष के रास्ते पर जाने से हम कहीं न कहीं चूक रहे हैं । यदि मोक्ष चाहिए तो वीतरागता प्राप्त करने की कोशिश करते रहना चाहिए ।
उन्होंने कहा मोह ही हमारे अन्दर इच्छा और कल्पना पैदा करने का कार्य करता है । इच्छा और कल्पनाओं के कारण हम दुखी होते हैं । हमें इनसे मुक्त होना है।
उन्होंने कहा मोह ही हमारे अन्दर इच्छा और कल्पना पैदा करने का कार्य करता है । इच्छा और कल्पनाओं के कारण हम दुखी होते हैं । हमें इनसे मुक्त होना है।
हमें यह कल्पना करनी है कि जो कुछ हो रहा है वह परमात्मा कर रहे हैं, मैं तो निमित्त हूं । परमात्मा के प्रति कृतत्व भावना को उजागर करेंगे तब ही राग, द्वेष, मोह- माया से मुक्ति मिलेगी । यदि प्रवृत्ति शुभ है और परिणति अशुभ है तो पुण्य का बल नहीं होगा। कर्म बंधन का आधार परिणति है प्रवृत्ति नहीं। धर्म क्रिया की परिणति शुभ होनी चाहिए।
स्वाध्याय, अध्ययन, जप तप, आराधना द्वारा परिणति को निर्मल बनाया जा सकता है। आत्मा का बोध व आत्मा की असली पहचान मोह को खत्म करके ही मिल सकती है।