कोयम्बत्तूर आर एस पुरम स्थित आराधना भवन में चातुर्मासिक प्रवचन की अमृत धारा जैन दिवाकर दरबार में विमलशिष्य वीरेन्द्र मुनि नें धर्म सभा को संबोधित करते हुवे कहा कि भगवान महावीर स्वामी सुबाहू कुमार को 12वें अतिथि संविभाग व्रत में सुपात्र दान देने का बताया गया। वैसे तो दान के कई प्रकार है पर मुख्य दो है सुपात्र और कुपात्र – सुपात्र दान देने से आत्मा निर्मल पवित्र बनती है और कभी दान देते हुवे भावो में बह जाये तो तीर्थंकर गौत्र का बंध भी ही सकता है।
तीर्थंकर न भी बने तो तीसरे भव में या 15 वें भव तक आत्मा मोक्ष में जा सकती है और अगर 15 वें भव तक मोक्ष न जा पाये तो अधर पुदगल परा वर्तन काल मे तो अवश्य आत्मा मुक्ति का वरण कर लेती है। इसलिये दान देते समय भावना शुद्ध रखे और निस्वार्थ भाव से दान धर्म सेवा भक्ति करके अपनी आत्मा को अजर अमर पद की अधि कारिणी बना सकते है।
कुपात्र वह है जिसे देने से हमारे लिये कर्मो के बंधन के अलावा कुछ नही होता। किसी शराबी को वैश्यागामी को जुआरी को अर्थात् व्यसन वाले को दान दिया। वह आपके पैसों से व्यसन सेवन करेगा तब उसकी क्रिया लगेगी। पाप कर्म अठारह पाप करके धन कमाते है पैसे कमाते है और वापस पाप में ही खर्च करेंगे तो कर्म बंधन ही तो होगा। इसलिये भगवान ने चतुर्विध संघ की सेवा करने को कहा उसे दे जो धर्म ध्यान त्याग तपस्या जाप आदि करता हो जो लेकर के सदुपयोग करता हो। इसका विवेक तो आपको स्वयं को रखना होगा दान पर दृष्टान्त (उदारण ) देकर के समझाया। अतिथि याने जिसके आने की कोई तिथि निश्चित नही कब आयेंगे अचानक आजाये उसे अतिथि कहते है और अतिथि होते है साधु साध्वी।